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________________ इसका कारण यह है कि मूलाचार में निश्चित अधिकारों के अनुसार विवक्षित विषय का-विशेषकर साध्वाचार का-विवेचन सुसम्बद्ध व अतिशय व्यवस्थित रूप में किया गया है। वहाँ प्रत्येक अधिकार के प्रारम्भ में प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा के लिए कुछ अवान्तर अधिकारों का निर्देश किया गया है और तत्पश्चात् उसी क्रम से उसकी प्ररूपणा की गई है। __ सम्भवतः मूलाचार के रचयिता की इस विषय-विवेचन की पद्धति को तिलोयपण्णत्तिकार ने भी अपनाया है। तिलोयपण्णत्ती के कर्ता मूलाचार के कर्ता के पश्चात् हुए हैं, यह उन्हीं के इस निर्देश से सुनिश्चित है - पलिदोवमाणि पंचय-सत्तारस-पंचवीस-पणतीसं । चउसु जुगलेसु आऊ णादव्वा इंददेवीणं ।। आरणदुगपरियंतं वड्ढंते पंचपल्लाई । मूलायारे इरिया एवं णिउणं णिरूवेति ॥-ति० प० ८,५३१-३२ यहाँ देवियों के उत्कृष्ट आयुविषयक जिस मतभेद का उल्लेख मूलाचार के कर्ता के नाम से किया गया है वह मत मूलाचार में इस प्रकार उपलब्ध होता है - पणयं दस सत्तधियं पणवीसं तीसमेव पंचधियं । चत्तालं पणदालं पण्णाओ पण्णपण्णाओ ।।---मूला० १२-८० इससे सिद्ध है कि मूलाचार के रचयिता तिलोयपण्णत्ती के कर्ता यतिवृषभाचार्य (लगभग ५वीं शती) से पूर्व में हुए हैं । उनसे वे कितने पूर्व हुए हैं, यह निश्चित तो नहीं कहा जा सकता है, पर वे आ० कुन्दकुन्द (प्रायः प्रथम शती) के पश्चात् और यतिवृषभ से पूर्व सम्भवतः दूसरीतीसरी शताब्दी के आसपास हुए होंगे। मलाचार में यद्यपि ऐसी अनेक गाथाएँ उपलब्ध होती हैं जो दशवैकालिक तथा आचारांगनिर्यक्ति, आवश्यकनियुक्ति एवं पिण्डनियुक्ति' आदि में उसी रूप में या कुछ परिवर्तित रूप में उपलब्ध होती हैं, पर उन्हें कहाँ से किसने लिया, इस विषय में कुछ निर्धारण करना युक्तिसंगत नहीं होगा। इसका कारण यह है कि श्रुतकेवलियों के पश्चात् ऐसी सैकड़ों गाथाएँ कण्ठगत रूप में आचार्य-परम्परा से प्रवाह के रूप में उत्तरकालीन ग्रन्थकारों को प्राप्त हुई हैं व उत्तरकालवर्ती ग्रन्थकारों ने अपनी मनोवृत्ति के अनुसार उन्हें उसी रूप में या कुछ परिवर्तित रूप में अपने-अपने ग्रन्थों में आत्मसात् किया है। इस प्रकार मूलाचार की प्राचीनता में कुछ बाधा नहीं दिखती। और तत्त्वार्थसूत्र पर चंकि मुलाचार का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, इसलिए तत्त्वार्थसूत्र के रचयिता गद्धपिच्छाचार्य वट्टकेराचार्य के पश्चात् ही हो सकते हैं । तत्त्वार्थसूत्र पर पूज्यपादाचार्य (अपरनाम देवनन्दी) ने सर्वार्थसिद्धि नाम की वृत्ति लिखी है। पूज्यपाद का समय प्रायः विक्रम की १. तिलोयपण्णत्ती में भी प्रत्येक महाधिकार के प्रारम्भ में अनेक अवान्तर अधिकारों का निर्देश करके, तदनुसार ही आगे वहाँ यथाक्रम से प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा की गयी है। २. इसके लिए 'अनेकान्त' वर्ष २१, किरण (पृ० १५५-६१) में शुद्धि के अन्तर्गत उद्दिष्ट माहार पर शीर्षक लेख द्रष्टव्य है। ग्रन्थकारोल्लेख / ६६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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