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________________ पांचवा-छठी शताब्दी है। अतएव गृद्धपिच्छाचार्य का इसके पूर्व होना निश्चित है। इसके पूर्व वे कब हो सकते हैं, इसका ठीक निर्णय तो नहीं किया जा सकता है, पर सम्भावना उनके तीसरी शताब्दी के आसपास होने की है। ६. गुणधर भट्टारक यह पूर्व में कहा जा चुका है कि कसायपाहुड के अवसर प्राप्त उल्लेख के प्रसंग में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि वर्षमान जिनेन्द्र ने जिस अर्थ (अनुभागसंक्रम) की प्ररूपणा गौतम स्थविर के लिए की थी, वह आचार्यपरम्परा से आकर गुणधर भट्टारक को भी प्राप्त हुआ। उनके पास से वही अर्थ आचार्यपरम्परा से आकर आर्यमक्ष और नागहस्ती भट्टारक को प्राप्त हुआ। उसका व्याख्यान उन दोनों ने क्रम से यतिवृषभ भट्टारक को किया व उन्होंने भी उसे शिष्यों के अनुग्रहार्थ चूर्णिसूत्र में लिखा।' प्राचार्य गणधर ने कषायप्राभूत ग्रन्थ की रचना को प्रारम्भ करते हुए यह स्वयं स्पष्ट किया-कि पांचवें पूर्व के भीतर 'वस्तु' नाम के जो बारह अधिकार हैं, उनमें दसवें वस्तु अधिकार के अन्तर्गत बीस प्राभृतों में तीसरा 'प्रेयःप्राभृत' है। उसका नाम कषायप्राभत है । मैं उसका व्याख्यान एक सौ अस्सी (१८०) गाथासूत्रों में पन्द्रह अधिकारों के द्वारा करूंगा। उनमें जो गाथाएँ जिस अर्थाधिकार से सम्बद्ध हैं, उनको कहता हूँ।' ____ इस अभिप्राय को व्यक्त करते हुए उन्होंने आगे उन गाथासूत्रों को विवक्षित अर्थाधिकारों में विभाजित भी किया है। इससे यह स्पष्ट है कि आचार्य गुणधर पांचवें ज्ञानप्रवाद पूर्व के अन्तर्गत 'प्रेयोद्वेषप्राभूत' अपरनाम 'कषायप्राभृत' के पारंगत रहे हैं। उनके द्वारा विरचित यह गाथासूत्रात्मक कषायप्राभूत गम्भीर अर्थ से गभित होने के कारण अतिशय दुर्बोध है, चूर्णिसूत्र और जयधवला टीका के बिना मूल गाथासूत्र के रहस्य को समझ सकना कठिन है। यही कारण है जो मूल ग्रन्थकर्ता ने कहीं-कहीं दुरूह गाथासूत्रों को स्पष्ट करने के लिए स्वयं कुछ भाष्यगाथाओं को भी रचा है। ऐसी भाष्यगाथाओं की संख्या तिरेपन (५३) है। इस प्रकार ग्रन्थगत समस्त गाथाओं की संख्या दो सौ तेतीस (१८०+५३ == २३३) है। किन्हीं व्याख्यानाचार्यों का यह भी अभिमत है कि १८० गाथाओं के अतिरिक्त जो ५३ भाष्यगाथाएँ हैं वे स्वयं मूलग्रन्थकार गुणधराचार्य के द्वारा नहीं रची गयी हैं, उनकी रचना नागहस्ती आचार्य द्वारा की गयी है । इस प्रकार गाथा २ में जो १८० गाथाओं को १५ अर्थाधिकारों में विभाजित करने की प्रतिज्ञा की गई है, वह स्वयं ग्रन्थकार के द्वारा न होकर आचार्य नागहस्ती के द्वारा की गयी है । १. धवला, पु० १२, पृ० १३१-३२; लगभग यही अभिप्राय जयधवला (भाग १, पृ० ८८ व भाग ५, पृ० ३८८) में भी प्रकट किया गया है। २. पुग्वम्मि पंचमम्मि दु दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिए। पंज्जं ति पाहडम्मि दु हवदि कसायाण पाहुडं णाम ॥ गाहासदे असीदे अत्थे पण्णरधा विहत्तम्मि । वोच्छामि सुत्तगाहा जयि गाहा जम्मि अत्थम्मि ।।-क०पा० १-२ ३. देखिए आगे गाथा, ३.१६ ६६८ / षट्प डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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