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________________ इस आशय का एक शंका-समाधान जयधवला में भी इस प्रकार उपलब्ध होता है "असीदिसदगाहाओ मोत्तूण अवसेस-संबंधद्धा परिमाणणिद्देस-संकमणगाहाओ जेण जाग हत्यि-आइरिय-कयाओ तेण 'गाहासदे असीदे' इदि भणिदूण णागहत्यिआइरिएण पइज्जा कदा इदि के वि वक्खाणाइरिया भणंति तण्ण घडदे, संबंधगाहाहि अद्धापरिमाणणिद्देसगाहाहि संकमणगाहाहि य विणा असीदिसदगाहाओ चेव भणंतस्स गुणहरभडारयस्स अयाणप्पसंगादो। तम्हा पुवुत्तत्थो चेव घेत्तव्यो।"-भाग १, पृ० १८३ ।। विचार करने पर व्याख्यानाचार्यों का उक्त कथन संगत ही प्रतीत होता है। कारण यह कि जो ग्रन्यकार अपेक्षित ग्रन्थ की रचना को प्रारम्भ करता है वह ग्रन्थ-रचना के पूर्व ही उसमें आवश्यकतानुसार रची जाने वाली गाथाओं की संख्या को निर्धारित करके व उन्हें अधिकारों में भी विभाजित करके दिखा दे, यह कुछ कठिन ही प्रतीत होता है। गुणधर का समय आदि परम्परागत अंगश्रुत के एकदेश के धारक व वर्तमान श्रुत के प्रतिष्ठापक आचार्य गुणधर के जन्म-स्थान, माता-पिता व गुरु आदि के विषय में कुछ भी जानकारी उपलब्ध नहीं है। वे महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के पारंगत आचार्य धरसेन से पूर्व हुए हैं या पश्चात्, यह भी ज्ञात नहीं है। श्रुतावतार के कर्ता इन्द्रनन्दी ने भी इस विषय में अपनी अजानकारी प्रकट की है।' वेदनाखण्ड के अवतार को प्रकट करते हुए धवला में अन्यकर्ता के प्रसंग में कहा गया है कि लोहाचार्य के स्वर्गस्थ हो जाने पर आचारांग लुप्त हो गया। इस प्रकार भरत क्षेत्र में बारह अंगों के लुप्त हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वो के एकदेशभूत पेज्जदोसप्राभत और महा कर्मप्रकृतिप्राभूत आदि के धारक रह गये। ___'पेज्जदोस' कषायप्राभूत का नामान्तर है। आ० गुणधर इस कषायप्राभूत के पारंगत रहे हैं, यह धवलाकार के उक्त कथन से स्पष्ट है। पर वे महाकर्मप्रकृति के धारक भाचार्य धरसेन से पूर्व हुए हैं या पश्चात्, यह उससे स्पष्ट नहीं होता। इतना होते हुए भी पं० हीरालाल जी सिद्धान्तशास्त्री और उन्हीं के मत का अनुसरण करते हुए डॉ. नेमिचन्द्र जी ज्योतिषाचार्य ने भी गुणधर के धरसेन से लगभग २०० वर्ष पूर्व होने की कल्पना की है। उनकी युक्तियां इस प्रकार हैं (१) गुणधर को 'पेज्जदोसपाहुड' के अतिरिक्त महाकम्मपयडिपाहुड का भी ज्ञान था, जबकि धरसेन केवल महाकम्मपयडिपाहुड के वेत्ता रहे हैं। इस प्रकार धरसेन की अपेक्षा गुणधर विशिष्ट ज्ञानी रहे हैं। इसका कारण यह है कि कसायपाहुड में महाकम्मपयरिपाहर से सम्बद्ध बन्ध, संक्रमण और उदय-उदीरणा जैसे अधिकार हैं जो महाकम्मपयडिपाहड के अन्तर्गत २४ अनुयोगद्वारों में क्रम से छठे (बन्धन), बारहवें (संक्रम) और दसवें (उदय) अनुयोगद्वार हैं । २४वा अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार भी कसायपाहुड के सभी अधिकारों में व्याप्त है। १. इ० श्रुतावतार, श्लोक १५१ २. धवला, पु० ६, पृ० १३३ ३. क०पा० सुत्त की प्रस्तावना, पृ० ५ व आगे पृ० ५७-५८ तथा 'तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा', भाग २, पृ० २८-३० प्रत्यकारोल्लेख / ६६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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