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________________ (२) धरसेन ने किसी अन्य का उपसंहार नहीं किया है, जबकि गुणधर ने प्रस्तुत ग्रन्थ में 'पेज्जदोस' का उपसंहार किया है । इस प्रकार आ० धरसेन जहाँ वाचकप्रवर सिद्ध होते हैं, वहाँ गुणधराचार्य सूत्रकार के रूप में सामने आते हैं। (३) आ० गुणधर की यह रचना षट्खण्डागम, कम्मपयडी, शतक और सित्तरी इन ग्रन्यों की अपेक्षा अतिसंक्षिप्त, असंदिग्ध, बीजपदयुक्त, गहन और सारवान् पदों से निर्मित है। (४) आ० अर्हद्बली (वी०नि० ६६५ या वि०संवत् ६५) के द्वारा स्थापित संघों में एक गणधर नाम का भी संघ है, जिसे आ० गुणधर के नाम पर स्थापित किया गया है। इससे मा० गणधर का समय आ० अर्हद्बली से पूर्व सिद्ध होता है। इस प्रकार उनका समय विक्रम-पूर्व एक शताब्दी सिद्ध होता है। यहां उपर्युक्त युक्तियों पर विचार कर लेना अप्रासंगिक नहीं होगा, इससे उन पर कुछ विचार किया जाता है (१) आ० धरसेन 'महाकम्मपयडिपाहुड' के साथ 'पेज्जदोसपाहुड' के भी वेत्ता हो सकते हैं। जैसाकि पाठक ऊपर देख चुके हैं, धवलाकार ने इस प्रसंग में यह स्पष्ट कहा है कि भरत क्षेत्र में बारह दिनकरों (अंगों) के अस्तंगत हो जाने पर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वो के एकदेशभत 'पेज्जदोस' और 'महाकम्मपयडिपाहुड' के धारक रह गये। इस प्रकार प्रमाणीभूत महर्षि रूप प्रणाली से आकर महाकम्मपयडिपाहुड रूप अमृत-जल का प्रवाह धरसेन भट्टारक को प्राप्त हुआ। इस परिस्थिति में आचार्य धरसेन को गुणधराचार्य की अपेक्षा अल्पज्ञानी और गुणधर को विशिष्ट ज्ञानी कहना कुछ युक्तिसंगत नहीं दिखता। सम्भव तो यही है कि ये दोनों श्रुतधर अपने-अपने विषय--पेज्जदोसपाहुड और महाकम्मपयडिपाहुड-में पूर्णतया पारंगत होकर अन्य कुछ परम्परागत श्रुत के वेत्ता भी रहे होंगे। रही कुछ विशिष्ट बन्ध आदि अनुयोगद्वारों की बात, सो वे महाकम्मपयडिपाहुड में तो रहे ही हैं, पर वे या उनको अन्तर्गत करनेवाले उसी प्रकार के अधिकार पेज्जदोसपाहुड में सम्भव हैं-जैसे बन्धक व वेदक आदि । धवलाकार ने विविध प्रसंगों पर यह स्पष्ट भी किया है कि अमुक सूत्र या प्रकरणविशेष सूत्र में अनिर्दिष्ट अमुक-अमुक अर्थों का सूचक है।' पेज्जदोसपाहुड के अन्तर्गत सूत्रगाथाएं इसी प्रकार के अपरिमित अर्थ से गर्भित रही हैं। ___इसके अतिरिक्त पेज्जदोसपाहुड के अन्तर्गत पन्द्रह अधिकारों के विषय में मूलग्रन्थकार, चूर्णिसूत्रों के कर्ता और जयधवलाकार एकमत भी नहीं हैं। यह भी यहां विशेष ध्यान देने योग्य है कि महाकम्मपयडिपाहुड के अन्तर्गत जो २४ अनुयोगद्वार रहे हैं उनमें से मूल षट्खण्डागमकार ने प्रारम्भ के कृति व वेदना आदि छह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है, और वह भी अन्तिम वेदना आदि तीन खण्डों में की गयी है। अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा सूत्रसूचित कहकर धवलाकार आ० वीरसेन ने की है। षखण्डागम के जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध और बन्धस्वामित्वविचय--प्रारम्भ के इन तीन १. धवला, पु० ६, पृ० १३३ २. उदाहरणस्वरूप देखिए पु०६, पृ० ३५४ व पु० १०, पृ० ४०३ ३. क०पा० सुत्त प्रस्तावना पृ० ११-१२ तथा मूल में पृ० १४-१५ ३७०/षदखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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