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________________ इसलिए अब आगे सूत्रकार सब जीवसमासों के आश्रय से ज्ञानावरणादि कर्मों के जघन्य और उत्कृष्ट क्षेत्र की प्ररूपणा के लिए अल्पबहुत्वदण्डक कहते हैं।' तदनुसार ही आगे ग्रन्थकार द्वारा "यहाँ सब जीवों में अवगाहनादण्डक किया जाता है" ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए (सूत्र ३०) उस अल्पबहुत्वदण्डक की प्ररूपणा की गई है। यथा सूक्ष्म निगोदजीव अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना सबसे स्तोक है, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना उससे असंख्यात गुणी है, सूक्ष्म तेजकायिक की जघन्य अवगाहना उससे असंख्यात गुणी है, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तक की जघन्य अवगाहना उससे असंख्यातगुणी है, इत्यादि (सूत्र ३१-६४)। आगे इस अल्पबहुत्व में अवगाहना के गुणकार का निर्देश करते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि एक सूक्ष्म जीव से दूसरे सूक्ष्म जीव का अवगाहना-गुणकार आवली का असंख्यातवाँ भाग. सक्ष्म से बादर जीव की अवगाहना का गणकार पल्यापम का असंख्यातवाँ भाग. बादर से सूक्ष्म की अवगाहना का गुणकार आवली का असंख्यातवाँ भाग, और बादर से बादर जीव की अवगाहना का गुणकार पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । आगे पुनः बादर से बादर का गुणकार जो संख्यात समय कहा गया है वह द्वीन्द्रिय आदि निवृत्त्यपर्याप्त और उन्हीं पर्याप्त जीवों को लक्ष्य करके कहा गया है (६५-६६)। इस प्रकार से यह वेदनाक्षेत्र विधान अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । यहाँ सब सूत्र ६६ हैं। ६. वेदनाकालविधान–यहाँ भी पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व नाम के वे ही तीन अनुयोगद्वार हैं। पदमीमांसा में काल की अपेक्षा ज्ञानावरणीय आदि वेदनाओं सम्बन्धी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य पदों का विचार किया गया है (१-५)। स्वामित्व अनुयोगद्वार में स्वामित्व के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-जघन्यपदविषयक और उत्कृष्टपदविषयक । इनमें स्वामित्व के अनुसार काल की अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि वह उस अन्यतर पंचेन्द्रिय संज्ञी मिथ्यादष्टि के होती है जो सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हो चुका है। वह कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज अथवा कर्मभूमि प्रतिभाग में उत्पन्न इनमें कोई भी हो; संख्यातवर्षायुष्क अथवा असंख्यातवर्षायुष्क में कोई भी हो; देव, मनुष्य, तिर्यंच अथवा नारकी कोई भी हो; स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी अथवा नपुंसकवेदी कोई भी हो; जलचर, स्थलचर अथवा नभचर कोई भी हो; किन्तु साकार उपयोगवाला हो, जागृत हो, श्रुतोपयोग से युक्त हो, तथा उत्कृष्ट स्थिति के बन्धयोग्य उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश में वर्तमान अथवा कुछ मध्यम परिणामवाला हो (६-८)। इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने यहाँ सूत्र में उपयुक्त 'अकर्मभूमिज' शब्द से भोगभूमिजों को न ग्रहण कर देव-नारकियों को ग्रहण किया है, क्योंकि भोगभूमिज उसकी उत्कृष्ट स्थिति को नहीं बांधते हैं। १. धवला पु० ११, पृ० ५५ २. यह अवगाहना अल्पबहुत्व इसके पूर्व जीवस्थान-क्षेत्रानुगम में धवला में 'वेदनाक्षेत्रविधान' के नामनिर्देशपूर्वक उद्धृत किया गया है । पु०४, पृ० ६४-६८; वह गो० जीवकाण्ड में भी 'जीवसमास' अधिकार में उपलब्ध होता है । गा० ६७-१०१ मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ८७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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