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________________ स्थिवि और विधान इन छह अधिकारों में किया है। तदनुसार ऊपर जो विवक्षित काल के स्वरूप को बतलाया है वह 'निर्देश' रूप है। __स्वामित्व-काल का स्वामी कौन है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा है कि वह जीव और पुदगलों का है; क्योंकि वह इन दोनों के परिणामस्वरूप है। विकल्प रूप में आगे यह भी कहा गया है --- अथवा वह परिभ्रमशील सूर्यमण्डल का है, क्योंकि उसके उदय और अस्तगमन से दिवस आदि उत्पन्न होते हैं । साधन--काल किसके द्वारा निरूपित है, इस प्रकार उसके साधन या कारण को प्रकट करते हुए कहा है कि वह परमार्थकाल से उत्पन्न होता है, अर्थात् उसका कारण परमार्थ या निश्चयकाल है। अधिकरण-वह काल कहाँ पर है, इस प्रकार आधार को स्पष्ट करते हुए कहा है कि वह त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायों से परिपूर्ण मानुषक्षेत्रगत प्रत्येक सूर्यमण्डल में है। __यहाँ यह शंका उत्पन्न हुई कि यदि काल मानुषक्षेत्रगत सूर्यमण्डल में ही अवस्थित है तो तो यव (जौ) राशि के समान समय स्वरूप से अवस्थित और स्व-पर-प्रकाश का कारणभूत वह काल दीपक के समान छह द्रव्यों के परिणामों को कैसे प्रकाशित कर सकता है, जबकि वह समस्त पुद्गलों से अनन्तगुणा है। इस शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि जिस प्रकार प्रस्थ (मापविशेष) मापे जानेवाले धान्य आदि से पृथक रहकर भी उनको मापता है उसी प्रकार काल भी छह द्रव्यों से पृथक् रहकर उनके परिणमन को प्रकाशित करता है। अभिप्राय यह है कि वह स्वयं अपने परिणमन का और अन्य पदार्थों के भी परिणमन का कारण है। जैसे दीपक स्वयं को प्रकाशित करता है और अन्य पदार्थों को भी। इस प्रकार अनवस्था दोष का प्रसंग नहीं प्राप्त होता है,अन्यथा स्व-पर-प्रकाशक दीपक के साथ व्यभिचार अनिवार्य होगा। देवलोक में काल के न होने पर भी यहीं के काल से वहाँ काल का व्यवहार होता है। एक शंका वहाँ यह भी की गयी है कि काल जब जीवों और पुद्गलों का परिमाण है तब केवल मानुषक्षेत्रगत सूर्यमण्डल में स्थित न होकर उसे समस्त जीवों और पुद्गलों में स्थित होना चाहिए । इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि लोक में व आगम में वैसा व्यवहार नहीं है। काल का व्यवहार केवल अनादिनिधन सूर्यमण्डल की क्रियाजनित द्रव्यों के परिणामों में ही प्रवृत्त है । अतः यहाँ किसी प्रकार के दोष की सम्भावना नहीं है । स्थिति .. काल कितने समय तक रहता है, इसका विचार करते हुए धवला में कहा है कि वह अनादि व अपर्यवसित है। इस प्रसंग में शंकाकार ने काल का काल उससे भिन्न है या अभिन्न, इन दो विकल्पों को उठाते हुए उनके निराकरणपूर्वक काल से काल का निर्देश असंगत ठहराया है । उसके इस अभिमत का निराकरण कर धवला में कहा है कि अन्य सूर्यमण्डल में स्थित काल द्वारा उससे पृथग्भूत सूर्यमण्डल में स्थित काल का निर्देश सम्भव है। अथवा उससे उसके अभिन्न होने पर भी काल से काल का निर्देश सम्भव है। जैसे- 'घट का भाव' और 'शिलापुत्र क का शरीर' इन उदाहरणों में घट से अभिन्न उसके भाव में और शिलापुत्रक से अभिन्न उसके शरीर में भेद का व्यवहार देखा जाता है । विधान-काल कितने प्रकार का है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सामान्य से काल एक ही प्रकार का है । वही अतीत, अनागत और वर्तमान के भेद से तीन प्रकार का है। अथवा गुणस्थितिकाल, भवस्थितिकाल, कर्मस्थितिकाल, कायस्थितिकाल, उपपादकाल और षट्खण्डागम पर टोकाएँ / ४१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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