SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 470
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावस्थितिकाल के भेद से वह छह प्रकार का भी है। अथवा परिणामों के अनन्त होने से उन से अभिन्न वह अनेक प्रकार भी है (धवला ४, पृ० ३१३-३२२)। ओघ की अपेक्षा काल-प्ररूपणा सूत्रकार द्वारा प्रथमत: ओघ की अपेक्षा काल की प्ररूपणा की गयी है। तदनुसार यहाँ सर्वप्रथम मिथ्यादृष्टियों के काल की प्ररूपणा करते हुए नाना जीवों की अपेक्षा उनका काल समस्त काल निर्दिष्ट किया गया है। कारण यह कि नाना जीवों की अपेक्षा वे सदा विद्यमान रहते हैं-उनका कभी अभाव सम्भव नहीं है। __एक जीव की अपेक्षा उनका काल अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादिसपर्यवसित कहा गया है (सूत्र १,५, २-३)। इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने अभव्य मिथ्यादृष्टियों के काल को अनादि-अपर्यवसित बतलाया है, क्योंकि उनके मिथ्यात्व का आदि, अन्त और मध्य नहीं है। भव्य मिथ्यादृष्टियों का मिथ्यात्व अनादि होकर भी विनष्ट हो जानेवाला है। उन्हें लक्ष्य में रखकर सत्र में उस मिथ्यात्व का काल अनादि-सपर्यवसित भी निर्दिष्ट किया गया है। धवला में इसके लिए वर्धनकुमार का उदाहरण दिया गया है। अन्य किन्हीं भव्यों के मिथ्यात्व का काल सादि-सपर्यवसित भी कहा गया है। जैसे कृष्ण आदि के मिथ्यात्व का काल । यह सादि-सपर्यवसित मिथ्यात्व का काल जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से दो प्रकार का है। इनमें जघन्य काल उसका अन्तर्मुहर्त मात्र है। धवला में यह उदाहरण भी दिया है-कोई एक सम्पमिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत परिगामवश मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। वह सबसे जघन्य अन्तर्महर्त काल उस मिथ्यात्व के साथ रहकर फिर से सम्यगमिथ्यात्व, असंयम के साथ सम्यक्त्व, संयमासंयम अथवा अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त हो गया। इस प्रकार से उस मिथ्यात्व का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हो जाता है।' सुत्र (१,५,४) में उस मिथ्यात्व का उत्कृष्ट काल कछ कम अर्धपदगलपरिवर्तन प्रमाण कहा है। इसकी व्याख्या में धवलाकार ने पुद्गलपरिवर्तन के स्वरूप को बतलाते हुए परिवर्तन के ये पाँच भेद निर्दिष्ट किये हैं-द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन भवपरिवर्तन, और भावपरिवर्तन । इनमें द्रव्यपरिवर्तन नोकर्मपदगलपरिवर्तन और कर्मपूदगलपरिवर्तन के भेद से दो प्रकार का है । प्रकृत में इस नोकर्म व कर्मरूप पुद्गलपरिवर्तन की विवक्षा रही है। पुद्गलपरिवर्तनकाल तीन प्रकार का है-- अगृहीत ग्रहणकाल, गृहीतग्रहणकाल और मिश्रग्रहणकाल । विवक्षित पुद्गलपरिवर्तन के भीतर सर्वथा अगृहीत पुद्गलों के ग्रहण का जो काल है वह अगृहीतकाल कहलाता है। उसी विवक्षित पुद्गलपरिवर्तन के भीतर गृहीत पुद्गलों के ग्रहण-काल को गृहीतग्रहणकाल कहते हैं । यहीं पर कुछ गृहीत और कुछ अगृहीत दोनों प्रकार के पुद्गलों के ग्रहणकाल को मिश्रग्रहणकाल कहा गया है। इस पुद्गल परिवर्तन को पूरा करने में जीव किस प्रकार से गृहीत, अगृहीत और मिथ पुद्गलों को ग्रहण किया करता है, इसका धवला में विस्तार से विवेचन है। इसी प्रसंग में वहाँ अगृहीतग्रहण काल आदि के अल्पबहुत्व का भी निरूपण है। १. धवला पु० ४, पृ० ३२३-२५ २. वही, पृ० ३२५-३२ ४१६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy