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चार सिर किये जाते हैं ऐसे मन-वचन-काय से शुद्ध कृतिकर्म का प्रयोग करना चाहिए।'
सूत्रकार ने नामस्थापनादि के भेद से दस प्रकार के कर्म का निरूपण करके अन्त में उनमें से यहाँ समवदानकर्म को प्रसंगप्राप्त कहा है (सूत्र ५,४,३१) ।
समवदान आदि छह कर्म
धवला में इसका हेतु यह दिया गया है कि कर्मअनुयोगद्वार में उस समवदानकर्म की ही विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। साथ ही विकल्प के रूप में वहाँ यह भी कथन किया गया है-अथवा मूलग्रन्थकर्ता ने जो यहाँ समवदानकर्म को प्रकृत कहा है, वह संग्रहनय की अपेक्षा से है। इसका कारण बतलाते हुए धवला में कहा गया है कि मूलतंत्र में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म, ईर्यापथकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म की प्रधानता रही है; क्योंकि उनकी वहाँ विस्तार से प्ररूपणा की गयी है। ___'इन छह कर्मों को आधारभूत करके यहाँ हम सत्प्ररूपणा, द्रव्य, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करते हैं ऐसी सूचना करते हुए धवलाकार ने यथाक्रम से उनकी विस्तार से प्ररूपणा की है । यथा__ सत्प्ररूपणा के प्रसंग में वहां यह कहा गया है कि ओघ की अपेक्षा प्रयोगकर्म आदि छहों कर्म हैं। आदेश की अपेक्षा गतिमार्गणा के अनुवाद से नरकगति के भीतर नारकियों में प्रयोगकर्म, समवदानकर्म और क्रियाकर्म हैं । अधःकर्म, ईर्यापथकर्म और तपःकर्म उनमें नहीं हैं । अधःकर्म उनके इसलिए नहीं है कि वह औदारिकशरीरस्वरूप है, जिसका उदय उनके सम्भव नहीं है। ईयापथकर्म और तपःकर्म का सम्बन्ध महाव्रतों से है, जिनका आधार भी वही औदारिकशरीर है; इसलिए ये दोनों कर्म भी उनके सम्भव नहीं हैं। यही अभिप्राय देवों के विषय में भी ग्रहण करना चाहिए।
तिथंचगति में तियंचों के प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अधःकर्म और क्रियाकर्म ये चार हैं। महाव्रतों के सम्भव न होने से उनके ईर्यापथकर्म और तपःकर्म नहीं होते।
मनुष्यगति में मनुष्यों, मनुष्यपर्याप्तों और मनुष्यिनियों के ओघ के समान छहों कर्म होते हैं।
द्रव्यप्रमाणानुगम के प्रसंग में प्रथमतः द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता के स्वरूप का विवेचन है। तदनुसार प्रयोगकर्म, तपःकर्म और क्रियाकर्म में जीवों की 'द्रव्यार्थता' संज्ञा है तथा जीवप्रदेशों की संज्ञा 'प्रदेशार्थता' है। समवदानकर्म और ईयापथकर्म में जीवों की संज्ञा द्रव्यार्थता और उन्हीं जीवों में स्थित कर्मपरमाणुओं की प्रदेशार्थता संज्ञा है। अधःकर्म में अभव्यसिद्धों से अनन्तगुणे और सिद्धों से अनन्तगुणेहीन औदारिक नोकर्मस्कन्धों की द्रव्यार्थता और उन्हीं
१. वसुनन्दिवृत्ति द्रष्टव्य है । 'यथाजात' का अर्थ वृत्ति में 'जातरूपसदृशं क्रोध-मान-माया___संगादिरहितं' किया गया है। २. धवलाकार को 'मूलतंत्र' से कौन-सा ग्रन्थ अभिप्रेत रहा है, यह स्पष्ट नहीं है । सम्भव है,
उनकी दृष्टि महाकर्मप्रकृतिप्राभूत या उसके अन्तर्गत किसी अधिकार की ओर रही हो। ३. जम्हि सरीरे ट्ठिदाणं ओद्दावण-विद्दावण-परिदावण-आरंभाअण्णेहिंतो होति तं सरीरमाधा
कम्मं ति भणिदं होदि ।--पु० १३, पृ० ४६-४७
षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ५२१
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