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________________ इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अन्यत्र नमस्कार करने का निषेध किया गया—उसे अन्यत्र भी किया जा सकता है, पर सामायिक व थोस्सामिदडण्क के आदि व अन्त में उसे नियम से करना ही चाहिए, यह उक्त कथन का अभिप्राय है। विकल्प के रूप में 'चतुःशिर' का अभिप्राय प्रकट करते हुए यह भी कहा गया हैअथवा सभी क्रियाकर्म चतु:शिर-अरहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म इन चार को प्रधान करके ही होता है; क्योंकि सभी क्रियाकर्मों की प्रवृत्ति उन चार को प्रधानभूत करके ही देखी जाती है। (६) सामायिक और थोस्सामिदण्डक के आदि व अन्त में मन-वचन-काय की विशुद्धि के परावर्तनवार बारह होते हैं। इस प्रकार एक क्रियाकर्म बारह आवों से सहित होता है, ऐसा कहा गया है (पु० १३, पृ० ८८-६०)। मूलाचार के 'षडावश्यक' अधिकार में 'वन्द ना' आवश्यक के प्रसंग में (७,७६-११४) उसका विस्तार से विवेचन है । वहाँ 'वन्दना' के कृतिकर्म, चितिकर्म, पूजाकर्म और विनयकर्म ये समानार्थक नाम निर्दिष्ट हैं (गा० ७-७६)। क्रियाकर्म और कृतिकर्म में कुछ अर्थभेद नहीं है। 'कृत्यते छिद्यते अष्टविध कर्म येनाक्षरकदम्बकेन परिणामेन त्रियया वा तत् कृतिकर्म पापविनाशनोपायः' इस निरक्ति के अनुसार जिस अक्षरसमूह, परिणाम अथवा त्रिया के द्वारा आठ प्रकार के कर्म को नष्ट किया जाता है उसका नाम कृतिकर्म है । पाप के विनाश का यह एक उपाय है।' उस कृतिकर्म में कितनी अवनतियां व कितने सिर-हाथों को मुकुलित करके सिर से लगाने रूप नमस्कार–किये जाते हैं और वह कितने आवर्तों से शुद्ध व कितने दोषों से मुक्त होता है (७-८०), इसके स्पष्टीकरण में वहाँ यह पद्य भी उपलब्ध होता है दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव वा । चस्सिरं तिसुद्धच कि दियम्मं पउंजदे॥-मूला० ७-१०४ अर्थात् जिस क्रियाकर्म में यथाजात रूप में स्थित होकर दो अवनतियों, बारह आवर्त और १. मूलाचार वृत्ति ७-७६ २. इसे धवला पु०, ६ पृ० १८६ पर 'एत्थुववुज्जती गाहा' कहते हुए उद्धृत किया जा चुका है । तुलना कीजिए(क) चतुरावर्तत्रितयश्चतुःप्रणामः स्थितो यथाजातः । सामयिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दी ।। रत्नकरण्डक ५-१८ (सामायिक प्रतिमा के प्रसंग में)। इसकी टीका में आ० प्रभाचन्द्र ने 'यथाजात' का अर्थ 'बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह की चिन्ता से व्यावृत्त' किया है। (ख) दुओणयं जहाजायं कितिकम्म बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेसं एग णिक्खमणं ।।-समवायांग सूत्र १२ (ग) चतुःशिरस्त्रि-द्विनतं द्वादशावर्तमेव च। कृतिकर्माख्यमाचष्टे कृतिकर्मविधि परम् ।।--ह० पु. १०-१३३ यासनया सुविशुद्धा द्वादशवर्ता प्रवृत्तिषु प्राजः । सशिरश्चतुरानतिका प्रकीर्तिता वन्दना वन्द्या ।।-ह० पु० ३४-१४४ ५२० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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