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________________ आयु के समान अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थितिवाले होते हैं । अनन्तर समय में वह समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती शुक्ल ध्यान का ध्याता शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है। ___ यहाँ भी यह पूछने पर कि इसे 'ध्यान' संज्ञा कैसे प्राप्त है, धवलाकार ने कहा है कि एकाग्रता से प्रदेशपरिस्पन्द के अभाव स्वरूप चिन्ता के निरोध का नाम ध्यान है; यह जो ध्यान का लक्षण है वह उसमें घटित होता है, इसलिए उसकी 'ध्यान' संज्ञा के होने में कुछ विरोध नहीं है। फल के प्रसंग में यहां तीसरे शुक्लध्यान का फल योगों का निरोध और इस चौथे शुक्लध्यान का फल चार अधातिया कर्मों का विनाश निर्दिष्ट किया गया है (पु०१३, पृ०८७-८८)। क्रियाकर्म-सूत्रकार ने क्रियाकर्म के इन छह भेदों का निर्देश किया है- आत्माधीन, प्रदक्षिणा, त्रिःकृत्वा, तीन अवनति, चार सिर और बारह आवर्त (सूत्र ५,४,२७-२८)। धवला में इनकी विवेचना इस प्रकार की गयी है-- (२) क्रियाकर्म करते समय अपने अधीन रहना, पर के वश नहीं होना; इसका नाम 'आत्माधीन' है। कारण यह कि पराधीन होकर किया जाने वाला क्रियाकर्म कर्मक्षय का कारण नहीं होता। इसके विपरीत वह जिनेन्द्र देव आदि की अत्यासादना का कारण होने से कर्मबन्ध का ही कारण होता है। (२) वन्दना के समय गुरु, जिन और जिनालय की प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना 'प्रदक्षिणा' है। (३) प्रदक्षिणा, नमस्कार आदिरूप क्रियाओं का तीन बार करना 'त्रिःकृत्वा' है। अथवा एक ही दिन में जिनदेव, गुरु, और ऋषियों की जो तीन बार वन्दना की जाती है। उसे त्रि:कृत्वा कहा जाता है। यहाँ प्रसंगप्राप्त एक शंका का समाधान करते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वन्दना तीन सन्ध्याकालों में नियम से की जाती है, अन्य समयों में उसके करने का निषेध नहीं है। किन्तु तीन सन्ध्याकालों में उसे अवश्य करना चाहिए, इस नियम को प्रकट करने के लिए 'त्रिःकृत्वा' कहा गया है। (४) अवनत का अर्थ अवनमन या भूमि पर बैठना है । यह क्रिया तीन बार की जाती हैं। यथा-पैर धोकर मन की शुद्धिपूर्वक जिनेन्द्रदेव के दर्शन से उत्पन्न हुए हर्ष से रोमांचित होते हुए जिन के आगे बैठना, यह एक (प्रथम) अवनमन हुआ। पश्चात् उठ करके जिनेन्द्र आदि की विज्ञप्ति करते हुए फिर से बैठना, यह दूसरा अवनमन हुआ। तत्पश्चात् पुनः उठ करके सामायिक दण्डक के द्वारा आत्मशुद्धि करते हुए कषाय से रहित होकर शरीर से ममत्व छोड़ना, जिन भगवान् के अनन्त गुणों का ध्यान करना, चौबीस तीर्थंकरों की वन्दना करना तथा जिन, जिनालय और गुरु की स्तुति करके फिर से भूमि पर बैठना है; यह तीसरा अवनमन है। इस प्रकार एक-एक क्रियाकर्म को करते हुए तीन ही अवनमन होते हैं। (५) समस्त क्रियाकर्म चतुःशिर होता है। दोनों हाथों को मुकुलित करके सिर को झुकाना -नमस्कार करना, यह 'शिर' का अभिप्राय है। सामायिक के प्रारम्भ में जो जिनेन्द्र के प्रति सिर को नमाया जाता है, यह एक 'शिर' हुआ। उस सामायिक के अन्त में जो सिर को नमाया जाता है, यह द्वितीय 'शिर' हुआ। 'योस्सामि' दण्डक के आदि में जो सिर को नमाया जाता है, यह तृतीय 'शिर' हुआ। उसी के अन्त में जो सिर को नमाया जाता है, यह चतुर्थ 'शिर' हुआ। पट्खण्डागम पर टीकाएँ | ५१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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