SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 796
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३. कर्ता की प्ररूपणा करते हुए धवलाकार ने उस प्रसंग में वीर-निर्वाण के बाद कितने वर्ष बीतने पर शक राजा हुआ, इस विषय में तीन भिन्न मतों का उल्लेख किया है (१) वह वीर-निर्वाण के पश्चात् ६०५ वर्ष और पांच मास बीतने पर उत्पन्न हुआ। (२) वीर-निर्वाण के पश्चात् १४७६३ वर्ष बीतने पर शक राजा उत्पन्न हुआ। (३) वीर-निर्वाण के पश्चात् ७६६५ वर्ष और पांच मास व्यतीत होने पर शक राजा उत्पन्न नआ। इन तीन मतों के विषय में धवलाकार ने यह कहा है कि इन तीनों में कोई एक सस्य होना चाहिए, तीनों उपदेश सत्य नहीं हो सकते, क्योंकि उनमें परस्पर-विरोध है। इसलिए जानकर कुछ कहना चाहिए।' (४) 'कृति' अनुयोगद्वार में प्रसंगवश सिद्धों में कृतिसंचित, अवक्तव्यसंचित और नोकृतिसंचितों का अल्पबहुत्व दिखलाकर धवलाकार ने कहा है कि यह अल्पबहुत्व सोलह पदों वाले अल्पबहुत्व के विरुद्ध है । अतः उपवेश को प्राप्त कर किसी एक का निर्णय करना चाहिए।' (५) 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में अवधिज्ञान के विषय की प्ररूपणा के प्रसंग में "सव्वं च लोयणालि" आदि गाथासूत्र की व्याख्या में धवलाकार ने अविरुद्ध आचार्यवचन के अनुसार कहा है कि नो अनुदिश और चार अनुत्तरविमानवासी देव सातवीं पृथिवी के अधस्तन तल से नीचे नहीं देखते हैं । आगे इससे सम्बद्ध मतान्तर को प्रकट करते हुए यह भी कहा है कि कुछ आचार्य यह भी कहते हैं कि नो अनुदिश, चार अनुत्तरविमान और सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव अपने विमान-शिखर से नीचे अन्तिम वातवलय तक एक राजप्रतर विस्तार से सब लोक. नाली को देखते हैं। उसे जानकर कहना चाहिए। ऊपर ये पांच उदाहरण दिए गए हैं। ऐसे अन्य भी कितने ही प्रसंग धवला में उपलब्ध होते हैं। इस स्थिति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन समय में विविध साधुसंघों में तत्त्वगोष्ठियां हुआ करती थीं, जिनमें अनेक सैद्धान्तिक विषयों का विचार चला करता था। इन गोष्ठियों में भाग लेनेवाले तत्त्वज्ञानियों को उनकी बुद्धि-कुशलता के अनुसार उच्चारणाचार्य, निक्षेपाचार्य, व्याख्यानाचार्य, सूत्राचार्य आदि कहा जाता था। ऐसे आगमनिष्ठ किन्हीं विशिष्ट शिष्यों को लक्ष्य करके यह कह दिया जाता था कि अमुक विषयों में उपदेश प्राप्त करके कोई निर्णय लेना चाहिए। १. धवला, पु० ६, पृ०१३१-३३ २. धवला, पु. ६, पृ० ३१८ ३. धवला, पु० १३, पृ० ३१६-२० ७४२ / षट्खण्डागम-परिशील. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy