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________________ ज्ञानावरणीय वेदना किसके होती है' इस प्रश्न को उठा कर (सूत्र ४,२,४,६) उसका उत्तर गुणितकर्माशिक के लक्षणों को प्रकट करते हुए २६ (७-३२) सूत्रों में पूरा किया गया है। अनुयोगद्वारों का विभाग विवक्षित विषय को सरल व सुबोध बनाने के लिए उसे जितने व जिन अनुयोगद्वारों में विभक्त करना आवश्यक प्रतीत हुआ उनका निर्देश प्रकरण के प्रारम्भ में कर दिया गया है। तत्पश्चात् उसी क्रम से प्रसंग प्राप्त विषय की प्ररूपणा की गई है । जैसे—प्रथम खण्ड जीवस्थान के प्रारम्भ में सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वारों का निर्देश करके तदनुसार ही क्रम से जीवों के सत्त्व और द्रव्यप्रमाण आदि की प्ररूपणा की गई है। ओघ-आदेश उन अनुयोगद्वारों में भी जो क्रमशः प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा की गई है वह ओघ और आदेश के क्रम से की गई है। ओघ का अर्थ सामान्य या अभेद तथा आदेश का अर्थ विशेष अथवा भेद रहा है।' अभिप्राय यह है कि विवक्षित विषय का विचार वहाँ प्रथमतः सामान्य से—गति-इन्द्रिय आदि की विशेषता से रहित मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानों के आधार से-और तत्पश्चात् आदेश से-गति-इन्द्रिय आदि अवस्थाभेद के आश्रय से-प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार से यह प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा का क्रम इतना सुव्यवस्थित, क्रमबद्ध और संगत रहा है कि यदि लिपिकार की असावधानी से कहीं कोई शब्द या वाक्य आदि लिखने से रह गया है तो वह पूर्वापर प्रसंगों के आश्रय से सहज ही पकड़ में आ जाता है। उदाहरण के रूप में, सत्प्ररूपणा (पु० १) के अन्तर्गत सूत्र ६३ में नागरी लिपि में लिखित कुछ प्रतियों में मनुष्यणियों से सम्बद्ध प्रमत्तादि संयत गुणस्थानों का बोधक 'संजद' शब्द लिखने से रह गया था। उसके सम्पादन के समय जब उस पर ध्यान गया तो आगे के द्रव्यप्रमाणानुगम आदि अन्य अनुयोगद्वारों में उन मनुष्यणियों के प्रसंग में यथास्थान उस 'संजद' शब्द के अस्तित्व को देखकर यह निश्चित प्रतीत हुआ कि यहाँ वह 'संजद' शब्द लिखने से रह गया है। बाद में मुडबिद्री में सुरक्षित कानड़ी लिपि में ताड़पत्रों पर लिखित प्रतियों से उसका मिलान कराने से उसकी पुष्टि भी हो गई। चूलिका सूत्रों में निर्दिष्ट और उनके द्वारा सूचित तत्त्व की प्ररूपणा यदि उन अनुयोगद्वारों में १. ओधेन सामान्येनाभेदेन प्ररूपणमेकः, अपरः आदेशेन भेदेन विशेषेण प्ररूपणमिति । -धवला पु०१, पृ० १६० २. देखिए सूत्र १,१,८-६ (पु० १); सूत्र १,२,१-२ (पु० ३); सूत्र १,३,१-२, स्त्र १,४, १-२ व सूत्र १,५, १-२ (पु० ४); सूत्र १,६,१-२, सूत्र १,७,१-२ व सूत्र १, ८, १-२ (पु० ५)। ३. विशेष जानकारी के लिए देखिए पु० ७ की प्रस्तावना पृ० १-४ विवेचन-पद्धति | ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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