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________________ मांगोपांग कही नहीं की जा सकी है तो उसकी पूर्ति के लिए अन्त में आवश्यकतानुसार चुलिका नामक प्रकरण योजित किये गये हैं। सुत्रसूचित अर्थ को प्रकाशित करना, यह उन चूलिका प्रकरणों का प्रयोजन रहा है। यथा ---- १. जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर अन्त में चूलिका प्रकरण को योजित किया गया है। उसमें नौ चुलिकायें हैं।२। २. द्वितीय खण्ड 'खुद्दाबंध' के अन्त में 'महादण्डक' नाम का प्रकरण है। उसे धवलाकार ने 'चूलिका' कहा है। ३. वेदनाद्रव्यविधान में पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों के अन्त में 'चूलिका' को योजित किया गया है । ४. वेदनाकालविधान में आवश्यकतानुसार दो चलिकाओं को योजित किया गया है। ५. वेदनाभावविधान में प्रसंगानुसार तीन चूलिकायें जोड़ी गई हैं। ६. बन्धन अनुयोगद्वार में भी एक चूलिका योजित की गई है।" निक्षेप व नय प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा प्रसंगानुरूप संगत व आगमाविरुद्ध हो, इसके लिए प्राचीन आगमव्याख्यान की पद्धति में निक्षेप व नयों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है । कारण यह है कि एक ही शब्द के अनेक अर्थ सम्भव हैं। प्रकृत में उनमें उसका कौन-सा अर्थ अभिप्रेत है, यह निक्षेप विधि से ही हो सकता है। उदाहरण के रूप में, किसी का नाम यदि पार्श्वनाथ है तो यह जान लेना आवश्यक है कि वह नाम से ही 'पार्श्वनाथ' है, स्थापना या भाव से पार्श्वनाथ नहीं है । अन्यथा जिसे वैसा ज्ञान नहीं है वह अविवेकी उसकी पूजा-वन्दनादि में भी प्रवृत्त हो सकता है। किन्तु जो यह समझ चुका है कि वह केवल नाम से पार्श्वनाथ है, न तो उसमें पार्श्वनाथ की स्थापना की गई है और न वह भाव से (साक्षात्) पार्श्वनाथ है, वह उसकी वन्दनादि में प्रवृत्त नहीं होता। प्रस्तुत षट्खण्डागम में आवश्यकतानुसार सर्वत्र प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा करते हुए प्रथमत: विवक्षित विषय के सम्बन्ध में निक्षेपों की प्ररूपणा की गई है व प्रसंगप्राप्त विषय को प्रकरण के अनुरूप स्पष्ट किया गया है । १. सुत्तसूइदत्थपयासणं चूलियाणाम । धवला पु० १०, पृ० ३६५ (पु० ६, पृ० २; पु० ७, पृ० ५७५; पु० ११, पृ० १४०; पु० १२, पृ० ८८ और पु० १४, पृ० ४६६ भी द्रष्टव्य हैं) २. ये सब चूलिकायें ष० ख० पु. ६ में देखी जा सकती हैं। ३. समत्तेसु एक्कारसअणियोगद्दारेसु किमट्ठमेसो महादंडओ वोत्तुमाढत्तओ? वुच्चदे---खुद्दा. बंधस्स एक्कारसअणिओगद्दारणिबद्धस्स चूलियं काऊण महादंडओ वुच्चदे । ---धवला पु० ७, पृ० ५७५ ८. देखिए ष० खं० पु. १०, पृ० ३६५ ५. वही, पु० ११, पृ० १४० व ३०८ .. वही, पु० १२, पृ० ७८,८७ व २४१ ७. वही, पु० १४, पृ० ४६६ ३६ / षट्खण्डागम-परिश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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