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________________ उदाहरणस्वरूप कृति-अनुयोगद्वार को ले लीजिये । वहाँ सर्वप्रथम नाम-स्थापनादि के भेद से 'कृति' को सात प्रकार कहा गया है (सूत्र ४,१,४६) । आगे इन सबके स्वरूप को प्रकट करते हए अन्त में (४,१,७६) यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इनमें यहाँ गणनाकृति प्रकृत है। ____ यही अवस्था नय की भी है। एक ही वस्तु में एक-अनेक, सत्-असत् और नित्य-अनित्य आदि परस्पर विरुद्ध दिखनेवाले अनेक धर्म रहते हैं। उनकी संगति नय-प्रक्रिया के जाने बिना नहीं बैठायी जा सकती है । इसे स्पष्ट करते हुए आचार्य समन्तभद्र सुमति जिन की प्रस्तुति में कहते हैं कि हे भगवन् ! वही तत्त्व अनेक भी है और एक भी है, यह उसमें भेद का और अन्वय का जो ज्ञान होता है उससे सिद्ध है। उदाहरणार्थ, मनुष्यों में यह देवदत्त है, इस प्रकार जो भिन्नता का बोध होता है उससे उनमें कथंचित् अनेकता सिद्ध है। साथ ही उनमें यह देवदत्त भी मनुष्य है और यह जिनदत्त भी मनुष्य है, इस प्रकार जो उनमें अन्वय रूप बोध होता है उससे उनमें मनुष्य जाति सामान्य की अपेक्षा कथंचित् एकरूपता भी सिद्ध है। यदि इन दोनों में से किसी एक का लोप किया जाता है तो दूसरा भी विनष्ट हो जाता है । तब वैसी स्थिति में वस्तुव्यवस्था ही भंग हो जाती है । इसी प्रकार से सत्त्वअसत्त्व और नित्य-अनित्य आदि परस्पर विरुद्ध दिखनेवाले अन्य धर्मों में भी नयविवक्षा से समन्वय होता है।' यह आवश्यक है कि इस व्यवस्था में मुख्यता और गौणता अपेक्षित है। अर्थात् यदि विशेष मुख्य और सामान्य गौण है तो इस दृष्टि से तत्त्व की अनेकता सिद्ध है । इसके विपरीत यदि सामान्य मुख्य और विशेष गौण है तो इस अपेक्षा से वही तत्त्व कथंचित् एक भी है। इस प्रकार वस्तु-व्यवस्था के लिए नयविवक्षा की अनिवार्यता सिद्ध होती है। तदनुसार प्रस्तुत षट्खण्डागम में विवक्षित विषय का विचार उस नयविवक्षा के आश्रय से किया गया है । उदाहरणार्थ, उसी कृति अनुयोगद्वार में उक्त सात कृतियों में कौन नय किन कृतियों को स्वीकार करता है, ऐसा प्रश्न उठाते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि नैगम, संग्रह और व्यवहार उन सभी कृतियों को विषय करते हैं। किन्तु ऋजुसूत्र स्थापनाकृति को विषय नहीं करता तथा शब्दादिक नय नामकृति और भावकृति को स्वीकार नहीं करते। इसके लिए वहाँ कहीं-कहीं 'नयविभाषणता' नामक एक स्वतन्त्र अनुयोगद्वार भी रहा है। सूत्र-रचना षट्खण्डागम का अधिकांश भाग गद्यात्मक सूत्रों में रचा गया है। फिर भी उसमें कुछ १. अनेक मेकं च तदेव तत्त्वं भेदान्वयज्ञानमिदं हि सत्यम । ___ मृषोपचारोऽन्यतरस्यलोपे तच्छेषलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् ।।-स्वयंभू० २२ २. विधिनिषेधश्च कथंचिदिष्टौ विवक्षया मुख्य-गुणव्यवस्था । - इति प्रणीतिः सुमतेस्तवेयं मतिप्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ ।।--स्वयंभू० २५ ३. देखिए सूत्र ४,१,४७-५० (पु० ६) ४. देखिए सूत्र ४,१,४७ (पु०६), सूत्र ४,२,२,१ (पु० १०), सूत्र ५,३,५ (पु० १३) और सूत्र ५,४,५ (पु० १३) इत्यादि । विवेचन-पद्धति / ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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