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सर्व स्पर्श है ।
यहाँ शंकाकार ने एक परमाणु के दूसरे परमाणु में प्रवेश को एकदेश और सर्वात्मस्वरूप से भी असम्भव सिद्ध करते हुए सूत्रोक्त परमाणु के दृष्टान्त को असंगत ठहराया है। उसके द्वारा उद्भावित इस असंगति के प्रसंग का निराकरण करते हुए धवला में शंकाकार से यह पूछा गया कि परमाणु सावयव है या निरवयव । इन दो विकल्पों में परमाणु के सावयव होने
निषेध करते हुए यह कहा गया है कि अवयवी ही अवयव नहीं हो सकता, क्योंकि अन्य पदार्थ के बिना बहुव्रीहि समास सम्भव नहीं है । इसके अतिरिक्त सम्बन्ध के बिना उस सम्बन्ध का कारणभूत 'इन्' प्रत्यय भी घटित नहीं होता है ।"
(८) यहीं पर 'कर्म' अनुयोगद्वार में 'प्रयोगकर्म' के प्रसंग में संसारस्थ जीवों और सयोगकेवलियों को प्रयोगकर्मस्वरूप से ग्रहण किया गया है । इस स्थिति में यहाँ यह शंका उठायी गई है कि जीवों की 'प्रयोगकर्म' यह संज्ञा कैसे हो सकती है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि 'पओ करेदित्ति पओअकम्मं' इस प्रकार कर्ता कारक में 'प्रयोगकर्म' शब्द सिद्ध हुआ है । इसलिए उसके जीवों की संज्ञा होने में कुछ विरोध नहीं है ।
इसी प्रसंग में सूत्र (५, ४, १८) में उक्त बहुत से संसारी और केवालियों के ग्रहणार्थ 'तं' इस एकवचनान्त पद का प्रयोग किया गया है। इसके विषय में भी शंका की गई है कि बहुत से संसारस्थ जीवों के लिए सूत्र में 'तं' इस प्रकार से एकवचन का निर्देश कैसे किया गया । उत्तर में कहा गया है कि 'प्रयोगकर्म' इस नामवाले जीवों की जाति के आश्रित एकता को देखकर एकवचन का निर्देश घटित होता है । "
( ६ ) यहीं पर आगे 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में यह एक सूत्र आया है"तस्सेव सुदणाणावरणीयस्स अण्णं परूवणं कस्सायो ।”
-५,५,४६
यहाँ यह शंका उत्पन्न हुई है कि आगे प्ररूपणा तो श्रुतज्ञान के समानार्थक शब्दों की की जा रही है और सूत्र में प्रतिज्ञा यह की गई है कि आगे उसी श्रुतज्ञानावरणीय की अन्य प्ररूपणा की जा रही है, इसे कैसे संगत कहा जाय । इस दोष का निराकरण करते हुए धवला में तो यह कहा गया है कि आवरणीय के स्वरूप की प्ररूपणा चूंकि उसके द्वारा आब्रियमाण ज्ञान के स्वरूप की अविनाभाविनी है, इसलिए उक्त प्रकार से प्रतिज्ञा करके भी श्रुतज्ञान समानार्थक शब्दों की प्ररूपणा करने में कुछ दोष नहीं है ।
तत्पश्चात् प्रकारान्तर से भी उस शंका का समाधान करते हुए यह कहा गया है कि अथवा कर्मकारक में 'आवरणीय' शब्द के सिद्ध होने से भी सूत्र में वैसी प्रतिज्ञा करने पर कुछ विरोध नहीं है । 3
ये जो कुछ ऊपर थोड़े-से उदाहरण दिए गये हैं उनसे सिद्ध है कि आचार्य वीरसेन एक प्रतिष्ठित वैयाकरण भी रहे हैं । कारण यह कि व्याकरणविषयक गम्भीर ज्ञान के बिना शब्दों की सिद्धि और समास आदि के विषय में उपर्युक्त प्रकार से ऊहापोह करना सम्भव नहीं है । न्यायनिपुणता -धवला में ऐसे अनेक प्रसंग आये हैं जहाँ आचार्य वीरसेन ने प्रसंगप्राप्त
१. धवला पु० १३, पृ० २१-२३ २ . वही, ४४-४५
३. धवला, पु० १३, पृ० २७६
३५८ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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