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निराकरण किया है (पु० १३, पृ० २१-२४) ।
कर्मस्पर्श के प्रसंग में सूत्र कार ने कहा है कि कर्मस्पर्श ज्ञानावरणीयस्पर्श, दर्शनावरणीयस्पर्श आदि के भेद से आठ प्रकार का है (सूत्र ५,३,२५-२६)।
इसकी व्याख्या में धवलाकार ने यह बताया है कि आठ कर्मों का जीव, विस्रसोपचय और नोकर्मों के साथ जो स्पर्श होता है वह द्रव्यस्पर्श के अन्तर्गत है इसलिए यहाँ उसे कर्मस्पर्श नहीं कहा जाता है । किन्तु कर्मों का कर्मों के साथ जो स्पर्श होता है वह कर्मस्पर्श है आगे 'अब यहाँ स्पर्श के भंगों की प्ररूपणा की जाती है' ऐसी सूचना कर उन्होने उसके भंगों को स्पष्ट किया है । कर्मस्पर्श के पुनरुक्त-अपुनरुक्त सभी भंग ६४ होते हैं। इनमें २८ पुनरुक्त भंग कम कर देने पर शेष ३६ भंग अपुनरुक्त रहते हैं । जैसे
(१) ज्ञानावरणीय ज्ञानावरणीय का स्पर्श करता है । (२) ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय का स्पर्श करता है। इस क्रम से ज्ञानावरणीय के ८ भंग होते हैं।
(१) दर्शनावरणीय दर्शनावरणीय का स्पर्श करता है। (२) दर्शनावरणीय ज्ञानावरणीय का स्पर्श करता है (पुनरुक्त)। (३) दर्शनावरणीय वेदनीय का स्पर्श करता है। इत्यादि क्रम से दर्शनावरणीय के भी ८ भंग होते हैं । इसी प्रकार से वेदनीय आदि शेष छह कर्मों के भी ८-८ भंग निर्दिष्ट किये गये हैं।
बन्धस्पर्श के प्रसंग में भी इसी प्रकार से औदारिकशरीर-बन्धस्पर्श आदि के भेद से बन्धस्पर्श के पांच प्रकार के भंगों को धवला में स्पष्ट किया गया है (पु० १३, पृ० ३०-३४)।
२. कर्म अनुयोगद्वार
इस अनुयोगद्वार में जिन कर्म निक्षेप आदि १६ अनुयोगद्वारों का नामनिर्देश तथा कर्म के जिन दस भेदों का निर्देश किया गया है उनका परिचय 'मूलग्रन्थगत विषय-परिचय' में कराया जा चुका है। वहीं पर उसे देखना चाहिए। । उन दस कर्मों में ईर्यापथ कर्म को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने 'ई' का अर्थ योग और 'पथ' का अर्थ मार्ग किया है । तदनुसार योग के निमित्त से जो कर्म बंधता है वह ईर्यापथ कर्म कहलाता है। वह उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगिकेवली इन तीन गुणस्थानों में उपलब्ध होता है (सत्र ५,४,२४)।
धवला में ईर्यापथ कर्म को विशेष रूप से 'एत्थ ईरियावह कम्मरस लक्खणं गाहाहि उच्चदे' ऐसा निर्देश कर तीन गाथाओं को उद्धृत किया है और उनके आश्रय से कई विशेषणों द्वारा उसकी विशेषता को व्यक्त किया है । यथा
वह अल्प है, क्योंकि कषाय का अभाव हो जाने से वह स्थितिबन्ध से रहित होकर कर्मस्वरूप से परिणत होने के दूसरे समय में ही अकर्मरूपता को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार उसके कालनिमित्तक अल्पता देखी जाती है।
वह बादर है, क्योंकि ईर्यापथ कर्म सम्बन्धी समयप्रबद्ध के प्रदेश आठ कर्मों के समय प्रबद्ध प्रदेशों से संख्यातगुणे होते हैं। कारण कि उसमें एक सातावेदनीय को छोड़ कर अन्य कर्मों के
१. ईर्या योगः, स पन्था मार्गः हेतुः यस्य कर्मणः तदीर्यापथकर्म । जोगणिमित्तेणेव जं बज्झइ
तमीरियावहकम्म ति भणिदं होदि।-धवला पु० १३, पृ० ४७ ५०८ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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