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________________ प्रमत्तसंयत संख्यातगुणित १,८,६ संयतासंयत उनसे असंख्यातगुणित १,८,१० सासादनसम्यग्दृष्टि १,८,११ सम्यग्मिथ्यादृष्टि ,, संख्यातगुणित १,८,१२ असंयतसम्यग्दृष्टि ,, असंख्यातगुणित १,८,१३ मिथ्यादृष्टि ,, अनन्तगुणित १,८,१४ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम १,८,१५ क्षायिकसम्यग्दृष्टि उनसे असंख्यातगुणित १,८,१६ वेदकसम्यग्दृष्टि १,८,१७ आगे संयतासंयत, प्रमत्त-अप्रमत्तसंयत, तीन उपशामक और तीन क्ष पक गुणस्थानों में भी सम्यक्त्वविषयक अल्पबहुत्व को दिखाया गया है (सूत्र १,८,१८-२६)। इसी पद्धति से आगे आदेश की अपेक्षा गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से भी अल्पबहुत्व की प्ररूपणा हुई है। जीवस्थान-चूलिका प्रथम खण्ड जीवस्थान के अन्तर्गत पूर्वोक्त सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर आगे के सूत्र में सूत्रकार द्वारा ये प्रश्न उठाये गये हैं प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुआ जीव कितनी व किन प्रकृतियों को बांधता है ? कितने काल की स्थितिवाले कर्मों के आश्रय से वह सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, अथवा नहीं प्राप्त करता है ? कितने काल से व कितने भाग मिथ्यात्व के करता है ? उपशामना व क्षपणा किन क्षेत्रों में, किसके समीप में व कितना दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय करनेवाले के अथवा सम्पूर्ण चारित्र को प्राप्त करनेवाले के होती है ?—(सूत्र ६-१,१; पु० ६) ___ इस प्रकरण की व्याख्या में सर्वप्रथम धवलाकार ने मंगलस्वरूप सिद्धों को नमस्कार कर जीवस्थान की निर्मलगुणवाली चूलिका के कहने की प्रतिज्ञा की है। इस पर वहाँ शंका हुई है कि आठों अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर चूलिका किसलिए आयी है । इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि वह पूर्वोक्त आठ अनुयोगद्वारों के विषमस्थलों के विवरण के लिए प्राप्त हुई है। जीवस्थान के अन्तर्गत उन अनुयोगद्वारों में जिन विषयों की प्ररूपणा नहीं गयी है, पर वह उनसे सम्बद्ध है, उसके विषय में निश्चय उत्पन्न होइसी अभिप्राय से उसकी प्ररूपणा इस चूलिका' में की गयी है। इससे प्रस्तुत चूलिका को इन्हीं आठ अनयोगद्वारों के अन्तर्गत समझना चाहिए। प्रस्तुत चूलिका में प्ररूपित अर्थ को स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि क्षेत्र, काल और अन्तर अनुयोगद्वारों में जिन क्षेत्र व काल आदि का प्ररूपण है उनका सम्बन्ध जीवों की १. सुत्तसूइदत्थपयासणं चूलिया णाम । (पु० १०, पृ० ३६५); जाए अत्थपरुवणाए कदाए पुव्व परूविदत्थम्मि सिस्साणं णिच्छओ उपज्जदि सा चूलिया त्ति भणिदं होदि। (पु० ११, पृ० १४०) पु० ७, ५७५ भी द्रष्टव्य है । ४२८ / षट्सण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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