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८. अल्पबहुत्वानुगम ____जीवस्थान का यह अन्तिम (८वा) अनुयोगद्वार है। यहाँ प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए धवला में अल्पबहुत्व के ये चार भेद निर्दिष्ट किये गये हैं--नामअल्पबहुत्व, स्थापनाअल्पबहुत्व, द्रव्यअल्पबहुत्व और भावअल्पबहुत्व। आगे संक्षेप में इनके स्वरूप और भेद-प्रभेदों को प्रकट करते हुए नोआगमद्रव्यअल्पबहुत्व के तीन भेदों में से तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यअल्पबहत्व को सचित्त, अचित्त और मिश्रअल्पबहुत्व इन तीन प्रकार का निर्दिष्ट किया है। इनमें जीवद्रव्य के अल्पबहुत्व को सचित्त, शेष पाँच द्रव्यों के अल्पबहुत्व को अचित्त और दोनों के अल्पबहत्व को मिश्र-नोआगमद्रव्यअल्पबहुत्व कहा है। इन सब में यहां सचित्तनोआगमद्रव्यअल्पबहत्व का अधिकार है।
यहाँ धवलाकार ने पूर्व पद्धति के अनुसार इस अल्पबहुत्व का भी व्याख्यान निर्देश-स्वामित्व आदि के क्रम से किया है। निर्देश के प्रसंग में धवला में कहा गया है कि इसकी अपेक्षा यह तिगुना है या चौगुना, इत्यादि प्रकार की बुद्धि से ग्रहण करने योग्य जो संख्या का धर्म है वह अल्पबहुत्व कहलाता है । इस अल्पबहुत्व का स्वामी जीवद्रव्य है । अल्पबहुत्व का साधन पारिणामिक भाव है। उसका अधिक रण जीवद्रव्य है। उसकी स्थिति अनादि-अपर्यविसित है, क्योंकि सब गुणस्थानों का इसी प्रमाण से सदा अवस्थान रहता है। विधान के प्रसंग में कहा गया है कि मार्गणाओं के भेद से जिन्ने गुणस्थानों के भेद सम्भव हैं उतने भेद अल्पबहुत्व के हैं।'
मूत्रकार ने अन्य अनुयोगद्वारों के समान इस अल्पबहुत्व की भी प्ररूपणा प्रथमत: ओघ की अपेक्षा मार्गणानिरपेक्ष गुणस्थानों में और तत्पश्चात् आदेश की अपेक्षा माणणाविशिष्ट गुणस्थानों में की है । आवश्यकतानुसार धवलाकार ने यथावसर सूत्रकार का अभिप्राय भी स्पष्ट कर दिया है । विस्तारपूर्वक स्पष्टीकरण की यहाँ आवश्यकता नहीं हुई है । उदाहरण के रूप में ओघ की अपेक्षा इस अल्पबहुत्व की प्ररूपणा इस प्रकार देखी जा सकती हैगुणस्थान
अल्पबहुत्व [अपूर्वकरण सबसे कम (प्रवेश की अपेक्षा)
१,८,२ उपशामक | अनिवृत्तिकरण
| सूक्ष्मसाम्पराय उपशान्तकषाय
पूर्वोक्तप्रमाण (प्रवेश की अपेक्षा) १,८,३ [अपूर्वकरण संख्यातगुणित
१,८,४ क्षपक अनिवृत्तिकरण
सुक्ष्मसाम्पराय क्षीणकषाय पूर्वोक्तप्रमाण
१,८,५ सियोगिकेवली
१,८,६ अयोगिकेवली सयोगिकेवली
संख्यातगुणित (संचय की अपेक्षा) १,८,७ अप्रमत्तसंयत
संख्यातगुणित (अक्षपक-अनुपशमक) (पूर्वप्रमाण से)
१,८,८
१. धवला पु० ५, पृ० २४१-४३
षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४२७
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