SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 834
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६-६८ मनुष्य मिथ्या दृष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातवर्षायुष्क भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी देव मनुष्य सम्यग्दृष्टि असंख्यातवर्षायुष्क सौधर्म-ईशान | १७०-७२ कल्पवासी देव मिथ्यादष्टि व सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रिय बादर गर्भज, पर्याप्त व पृथिवी अप्, संख्यातवर्षायुष्क वनस्पतिका प्रत्येक शरीर तथा पंचेन्द्रिय संजी, गर्भज, पर्याप्त संख्यातवर्षायुष्क १७३-८३, १८४ (मिश्र में मरण का अभाव) देव सामान्य सम्यग्दृष्टि १८५-८६ गर्भज, पर्याप्त व संख्यातवर्षायुष्क एकेन्द्रिय बादर पृथिवी, अप्, । वन० प्रत्येकशरीर तथा संज्ञी, गर्भज, पर्याप्त संख्यात० भवनत्रिक व सोधर्मईशान कल्पवासी मि० व सासादनसम्यग्दष्टि (सामान्य देवों के समान) १६० व १७३-८४ उपयुक्त देव सम्यग्दृष्टि - सनत्कुमार से शतार- | - पंचेन्द्रिय, संज्ञी, सहस्रार तक मि० व | पर्याप्त, गर्भज, सासादनसम्यग्. (प्रथम संख्यातवर्षायुष्क पृथिवी के समान) १६० व १८५-८६ १६१ व ७६-८६ उक्त देव सम्यदृष्टि १६१ व ८७-६२ १६२-६७ आनत से लेकर नौ ग्रेवेयक तक मि०, सासा० व असंयतसम्यग्दृष्टि अनुदिश से लेकर सर्वा० - तक असंयतसम्यदष्टि । १६८-२०२ ७८० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy