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________________ उन्हीं प्रकृतियों के उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशों की प्ररूपणा की जाती है, उसका नाम प्रदेशबन्धन उपक्रम है। धवलाकार ने आगे यह सूचना कर दी है कि इन चार उपक्रमों की प्ररूपणा जिस प्रकार 'सत्कर्मप्राभूत' में की गयी है उसी प्रकार से यहां भी उनकी प्ररूपणा करनी चाहिए। यहां यह शंका उत्पन्न हुई है कि कि उनकी प्ररूपणा जैसे 'महाबन्ध' में की गयी है वैसे उनकी प्ररूपणा क्यों नहीं की जाती है । उत्तर में कहा गया है कि महाबन्ध का व्यापार प्रथम समय-सम्बन्धी बन्ध की ही प्ररूपणा में रहा है। यहाँ उसका कथन करना योग्य नहीं है, क्योंकि वैसा करने पर पुनरुक्त दोष का प्रसंग प्राप्त होता है। इस प्रकार से यहां कर्मोपक्रम का प्रथम भेद बन्धनोपक्रम समाप्त हुआ है। (२) उदीरणोपक्रम उदीरणा प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार की है। इनमें प्रकृतिउदीरणा दो प्रकार की है-मूलप्रकृतिउदीरणा और उत्तरप्रकृतिउदीरणा। इनमें प्रथमतः मूलप्रकृतिउदीरणा की प्ररूपणा करते हुए उदीरणा के लक्षण में कहा गया है कि परिपाक को नहीं प्राप्त हुए कर्मों के पकाने का नाम उदीरणा है । अभिप्राय यह है कि आवली से बाहर की स्थिति को आदि करके आगे की स्थितियों के बन्धावलि से अतिक्रान्त प्रदेशपिण्ड को असंख्यात लोक के प्रतिभाग से अथवा पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रतिभाग से अपकर्षित करके जो उदयावलि में दिया जाता है, उसे उदीरणा कहते हैं। उपर्युक्त दो भेदों में मूलप्रकृतिउदीरणा दो प्रकार की है--एक-एक प्रकृतिउदीरणा और प्रकतिस्थानउदीरणा । इनमें यहाँ एक-एक प्रकृतिउदीरणा की प्ररूपणा क्रम से स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षा काल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल और अल्पबहुत्व इन अधिकारों में की गयी है । जैसे स्वामित्व की अपेक्षा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इनके उदीरक मिथ्यादृष्टि को आदि लेकर क्षीणकषाय तक होते हैं । विशेष इतना है कि क्षीणकषायकाल में एक समय से अधिक आवली के शेष रह जाने पर इन तीनों प्रकृतियों की उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती है। ____ इसी प्रकार से आगे मोहनीय आदि शेष मूलप्रकृतियों की उदीरणा के स्वामित्व की प्ररूपणा की गयी है (पु० १५, पृ० ४३)। एक जीव की अपेक्षा काल की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि वेदनीय और मोहनीय का उदीरक अनादि-अपर्यवसित, अनादि-सपर्यवसित और सादि-सपर्यवसित होता है । इनमें जो सादि-सपर्यवसित है वह उनकी उदीरणा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त करता है । अप्रमत्त से च्युत होकर व अन्तर्मुहुर्त स्थित रहकर जो पुनः अप्रमत्त गुणस्थान को प्राप्त हुआ है उसके वेदनीय की उदीरणा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त होती है, तथा उपशान्तकषाय से पतित होकर व अन्तर्मुहूर्त स्थित रहकर जो एक समय अधिक आवलीप्रमाण सूक्ष्म साम्परायिक के अन्तिम समय को नहीं प्राप्त हुआ है उसके मोहनीय की उदीरणा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त होती है । उत्कर्ष से उन दोनों की उदीरणा उपार्धपुद्गलपरिवर्तनकाल तक होती है । अप्रमत्त गुणस्थान से च्युत होकर व उपार्धपुद्गलप्रमाणकाल तक परिभ्रमण करके जो पुन: अप्रमत्त षट्खण्डागम पर टीकाएँ | १३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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