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किया गया है-आयु का वह द्रव्य एक समयप्रबद्ध में सबसे स्तोक, नाम व गोत्र इन दोनों कर्मों का वह द्रव्य परस्पर में समान होकर आयु के द्रव्य से विशेष अधिक; ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों का परस्पर में समान होकर पूर्व से विशेष अधिक; मोहनीय का विशेष अधिक, तथा वेदनीय का उससे विशेष अधिक होता है।
इसी पद्धति से उत्तरप्रकृतिप्रक्रम के प्रसंग में प्रथमतः उत्तरप्रकृतिप्रक्रमद्रव्य की और तत्पश्चात जघन्य प्रकृति प्रक्रमद्रव्य के अल्पबहुत्व की भी प्ररूपणा की गयी है।'
स्थितिप्रक्रम के प्रसंग में कहा गया है कि चरम स्थिति में प्रक्रमित प्रदेशाग्र सबसे स्तोक, प्रथम स्थिति में उससे असंख्यातगुणा, अप्रथम-अचरम स्थितियों में असंख्यातगुणा, अप्रथम स्थिति में विशेष अधिक, अचरम स्थिति में विशेष अधिक तथा सब स्थितियों में वह प्रक्रमित प्रदेशाग्र विशेष अधिक होता है। यह अल्पबहुत्व स्थितियों में प्रकान्त द्रव्य की अपेक्षा है, इसे आगे स्पष्ट किया गया है (पु० १५, पृ० ३६)।
अनुभागप्रक्रम के प्रसंग में कहा गया है कि जघन्य वर्गणा में बहुत प्रदेशाग्र प्रक्रान्त होता है. द्वितीय वर्गणा में वह अनन्तवें भाग से विशेष हीन प्रक्रान्त होता है। इस क्रम से अनन्त स्पर्धक जाकर वह दुगुणा हीन प्रक्रान्त होता है। इस प्रकार उत्कृष्ट वर्गणा तक ले जाना चाहिए। आगे इस प्रक्रान्त द्रव्य के अल्पबहुत्व को स्पष्ट किया गया है। ___ इस प्रकार आठवां प्रक्रम अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। ६. उपक्रम अनुयोगद्वार
पूर्व पद्धति के अनुसार उपक्रम अनुयोगद्वार नाम-स्थापनादि के भेद से छह प्रकार का कहा गया है। उनके अवान्तर भेदों नोआगमद्रव्य कर्मोपक्रम को यहाँ प्रसंगप्राप्त कहा गया है।
यहाँ प्रक्रम और उपक्रम में भेद दिखलाया है। प्रक्रम जहाँ प्रकृति, स्थिति और अनुभाग में आनेवाले प्रदेशपिण्ड की प्ररूपणा करता है, वहाँ उपक्रम बन्ध के द्वितीय समय से लेकर सत्स्वरूप से स्थित कर्मपुद्गलों के व्यापार की प्ररूपणा करता है।
कर्म-उपक्रम चार प्रकार का है-बन्धनउपक्रम, उदीरणाउपक्रम, उपशामनाउपक्रम और विपरिणामनाउपक्रम । इनमें बन्धनउपक्रम भी चार प्रकार का है-प्रकृतिबन्धनउपक्रम, स्थितिबन्धनउपक्रम, अनुभागबन्धनरपक्रम और प्रदेशबन्धनउपक्रम । (१) बन्धनउपक्रम
दूध और पानी के समान जीव के प्रदेशों के साथ परस्पर में अनुगत प्रकृतियों के बन्ध के क्रम की जहाँ प्ररूपणा की जाती है, उसका नाम प्रकृतिबन्धन उपक्रम है । जो सत्स्वरूप उन कर्मप्रकृतियों के एक समय से लेकर सत्तर कोडाकोड़ी सागरोपम काल तक अवस्थित रहने के काल की प्ररूपणा करता है उसे स्थितिबन्धन उपक्रम कहा जाता है । अनुभागबन्धन उपक्रम में जीव के साथ एकरूपता को प्राप्त उन्हीं सत्त्वरूप प्रकृतियों के अनुभाग सम्बन्धी स्पर्धक, वर्ग, वर्गणा, स्थान और अविभागप्रतिच्छेदों आदि की प्ररूपणा की जाती है। क्षपितकर्माशिक, गुणितकर्माशिक, क्षपितघोलमानकौशिक और गुणितघोलमानकर्माशिक का आश्रय करके जो
१. धवला, पु० १५, ३२-३६
५३८ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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