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सबसे सबके उत्पन्न होने का प्रसंग प्राप्त होता है।
(४) शक्त का शक्य कार्य का करना-समर्थ कारण में जिस कार्य के करने की शक्ति होती है उसी को वह करता है, अन्य को नहीं। अभिप्राय यह है कि समर्थ कारण में जो शक्य कार्य के करने की शक्ति रहती है वह उसके सत् रहने पर ही सम्भव है, अन्यथा वह असत् आकाशकुसुम के करने में भी होनी चाहिए। पर वैसा सम्भव नहीं है ।
(५) कारणभाव-कार्य कारण रूप हुआ करता है, इसलिए जब कारण सत् है तो उससे अभिन्न कार्य असत् कैसे हो सकता है ? उसे सत् ही होना चाहिए। ___इन पांच हेतुओं द्वारा जो कारणव्यापार के पूर्व भी कार्य के सत्त्व को सिद्ध किया गया है, उसे असंगत ठहराते हुए धवलाकार कहते हैं कि यदि कार्य सर्वथा सत् ही हो, तो उसके उत्पन्न करने के लिए जो कर्ता की प्रवृत्ति होती है व वह उसके लिए अनुकूल सामग्री को जुटाता है वह सब निष्फल ठहरता है। जो सर्वथा सत् ही है उसकी उत्पत्ति का विरोध है। इसके अतिरिक्त कार्य के सब प्रकार से विद्यमान रहने पर अमुक कार्य का अमुक कारण है, यह जो कार्यकारणभाव की व्यवस्था है वह बन नहीं सकती है-जिस किसी से जिस किसी भी कार्य की उत्पत्ति हो जानी चाहिए, पर ऐसा सम्भव नहीं है। इत्यादि प्रकार से उपर्युक्त सत्कार्य के साधक उन हेतुओं का यहाँ निराकरण किया गया है। ___ इसी प्रसंग में नैयायिक व वैशेषिकों के द्वारा जो लगभग उन्हीं पांच हेतुओं के आश्रय से कार्य के असत्त्व को व्यक्त किया गया है, उसका भी निराकरण धवलाकार ने कर दिया है । उन हेतुओं में सांख्य, जहाँ प्रथम हेतु को 'असत् किया नहीं जा सकता है' के रूप में प्रस्तुत करते हैं, वहाँ नैयायिक उसे 'सत् को किया नहीं जा सकता है के रूप में प्रस्तुत करते हैं । शेष चार हेतुओं का उपयोग जैसे सत् कार्य की सिद्धि में किया जाता है, वैसे ही उनका उपयोग असत् कार्य की सिद्धि में हो जाता है।
इस प्रकार यहाँ सत्-असत् व नित्य-अनित्य आदि सर्वथा एकान्त का निराकरण करते हुए अन्त में धवलाकार ने 'कार्य कथंचित् सत् भी है, कथंचित् असत् भी है, कथंचित् सत्-असत् भी' इत्यादि रूप में उसके विषय में सप्तभंगी को योजित किया है। ___ इस प्रसंग में धवलाकार ने प्रकरण के अनुसार आप्तमीमांसा की चौदह (३७,३६-४०, ४२,४१,५६-६०,५७,६ व १०-१४) कारिकाओं को उद्धृत किया है।'
प्रक्रम के भेद-प्रभेद ___ आनुषंगिक चर्चा को समाप्त कर आगे धवला में एक से अनेक कर्मों की उत्पत्ति कैसे होती है व मूर्त कर्मों का अमूर्त जीव के साथ कैसे सम्बन्ध होता है, इत्यादि का विचार करते हुए प्रकृत प्रक्रम के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-प्रकृतिप्रक्रम, स्थितिप्रक्रम और अनुभागप्रक्रम । इनमें प्रकृतिप्रक्रम मल और उत्तर प्रकृतिप्रक्रम के भेद से दो प्रकार का है। मूलप्रकृति प्रक्रम का निरूपण प्रक्रमस्वरूप कार्मणपुद्गलप्रचय द्रव्य के अल्पबहुत्व को इस प्रकार प्रकट
१. धवला, पु० १५, पृ० १५-३१ (सत्कार्यवाद व असत्कार्यवाद का विचार प्रमेयकमलमार्तण्ड
(पत्र ८०-८३) और न्यायकुमुदचन्द्र (१, पृ० ३५२-५८) आदि में किया गया है। ये ग्रन्थ धवला से बाद के हैं।
षट्खण्डागम पर टीकाएँ| ५३७
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