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________________ किया गया पर जीवसमास में उस सबका भी विशद विचार किया गया है ।' (गा० २६-५४) ५. १० ख० में जीवस्थान के अन्तर्गत दूसरे द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार में मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या को प्रकट करते हुए ये सूत्र कहे गये हैं "ओघेण मिच्छाइट्ठी दव्वपमाणेण केवडिया? अणंता । अणताणताहि ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीहि ण प्रवहिरंति कालेण । खेत्तण अणंताणंता लोगा।" -सूत्र १,२,२-४ (पु०३) इन सूत्रों के उसी अभिप्राय को जीवसमास में एक गाथा के द्वारा उन्हीं शब्दों में इस प्रकार व्यक्त कर दिया गया है मिच्छादग्बमणंता कालेणोसप्पिणी अणंताओ। खेत्तेण मिज्जमाणा हवं ति लोगा अणंताओ (उ)॥ -गा० १४४ ६. १० ख० में ओघ से मिथ्यादृष्टि आदि जीवों के क्षेत्रप्रमाण के प्ररूपक ये सूत्र हैं "ओघेण मिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे । सासण सम्माइटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभाए । सजोगिकेवली केवडि खेत्ते? लोगस्स असंखेज्जदिभाए असंखेज्जेसु वा भागेसु सव्लोगे वा।" ~ष०ख०, सू० १,३,२-४ (पु० ४) 'जीवसमास' में इस क्षेत्रप्रमाण को एक ही गाथा में इस प्रकार से व्यक्त कर दिया गया है मिच्छा य सव्वलोए असंखभागे य सेस या हुंति । केवलि असंखभागे भागेसु व सव्वलोए वा ॥ -गाथा १७८ दोनों ग्रन्थों में क्षेत्र-प्रमाण विषयक यह अभिप्राय तो समान है ही, साथ ही शब्द भी प्रायः वे ही हैं व क्रम भी वही है । विशेष इतना है कि 'जीवसमास' में उसे ष०ख० के समान प्रश्नपूर्वक स्पष्ट नहीं किया गया है। इसके अतिरिक्त 'सासादन से लेकर अयोगिकेवली तक' इस अभिप्राय को वहाँ एक 'शेष' शब्द में ही प्रकट कर दिया गया है ।। ७. ष०ख० में जीवस्थान के अन्तर्गत चौथे स्पर्शनानुगम अनुयोगद्वार में मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानवी जीवों के स्पर्शनक्षेत्र को इस प्रकार प्रकट किया गया है "अोघेण मिच्छादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो । सासण सम्मादिट्ठीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। अट्ट बारह चोद्दस भागा वा देसूणा । सम्मामिच्छा १. इन सबकी प्ररूपणा मूलाचार में की गई है। जैसे-पृथिवी आदि के भेद गाथा ५,८-२२; कुल ५, २४-२८ व १२, १६६-६९; योनि १२,५८-६३; इन सबकी प्ररूपणा से सम्बद्ध अधिकांश गाथाएँ मूलाचार व जीवसमास में शब्दशः समान उपलब्ध होती हैं। पृथिवी आदि के भेद-मलाचार ५,६-१६ व जीवसमास २७-३७ कुल , ५,२४-२६ , ४०-४२ योनि , १२,५८-६० , ४५-४७ मूलाचार गाथा १२,१२-१५ और जीवसमास गाथा ३०-३३ का पूर्वाधं समान है, उत्तरार्ध भिन्न है। जैसेमूलाचार-'ते जाण आउजीवा जाणित्ता परिहरेदव्वा ।।' जीवसमास-'वण्णाईहि य भेया सुहुमाणं णत्थि ते भेया ॥' (मूलाचार में पुढवि के स्थान में आगे क्रम से 'आऊ, तेऊ' और 'वाऊ' पाठ है) षट्खण्डागम को अन्य प्रन्थों से तुलना / २२५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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