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सूत्र का अनुसरण नहीं करता है, इसलिए वस्तुतः वही असंगत है।'
(७) इसी कालानुगम में आगे सूत्रकार द्वारा एक जीव की अपेक्षा बादर पृथिवीकायिक आदि जीवों का उत्कृष्ट काल कर्मस्थिति प्रमाण कहा गया है।-सूत्र १, ५, १४४
उसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने 'कर्मस्थिति' से सब कर्मों की स्थिति को न ग्रहण करके गुरूपदेश के अनुसार एक दर्शनमोहनीय कर्म की ही उत्कृष्ट स्थिति को ग्रहण किया है। क्योंकि उसकी सत्तर कोड़ाकोड़िसागरोपम-प्रमाण उत्कृष्टस्थिति में समस्त कर्मस्थितियां संग्रहीत हैं, इसलिए वही प्रधान है। यहां धवलाकार ने स्पष्ट किया है कि कितने ही आचार्य कर्मस्थिति से चूंकि बादरस्थिति परिकर्म में उत्पन्न है, इसलिए कार्य में कारण का उपचार करके बादर स्थिति को ही कर्मस्थिति स्वीकार करते हैं। पर उनका वैसा मानना घटित नहीं होता है, क्योंकि गौण और मुख्य के मध्य में मुख्य का ही बोध होता है, ऐसा न्याय है । आगे उसे और भी स्पष्ट किया है । तदनुसार बादरस्थिति को कर्मस्थिति स्वीकार करना संगत नहीं है।'
(८) क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत एक जीव की अपेक्षा कालानुगम अनुयोगद्वार में यही प्रसंग पुन: प्राप्त हुआ है (सूत्र २, २, ७७)। वहाँ भी धवलाकार ने कर्मस्थिति से सत्तर कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाणकाल को ग्रहण किया है । यहाँ भी धवलाकार ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कुछ आचार्य सत्तर कोड़ाकोडि सागरोपमों को आवलि के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर बादर पृथिवीकायिकादि जीवों की कायस्थिति होती है, ऐसा कहते हैं। उनके द्वारा निर्दिष्ट यह 'कर्मस्थिति' नाम कारण में कार्य के उपचार से है। इस पर यह पूछने पर कि ऐसा व्याख्यान है, यह कैसे जाना जाता है, उत्तर में कहा गया है कि इस प्रकार के व्याख्यान के बिना चूंकि “कर्मस्थिति को आवलि के असंख्यातवें भाग से गुणित करने पर बादरस्थिति होती है" यह परिकर्म का कथन बनता नहीं है, इसी से जाना जाता है कि वैसा व्याख्यान है।'
(६) इसी क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत द्रव्यप्रमाणानुगम में सूत्रकार द्वारा अकषायी जीवों का द्रव्यप्रमाण अनन्त कहा गया है।-सूत्र २, ५, ११६-१७
इस प्रसंग में यह पूछने पर कि अकषायी जीवराशि का यह अनन्त प्रमाण नौ प्रकार के अनन्त में से कौन से अनन्त में है, धवलाकार ने कहा है कि वह अजघन्य-अनुत्कृष्ट अनन्त में है, क्योंकि जहाँ-जहाँ अनन्तानन्त की खोज की जाती है वहाँ-वहाँ अजघन्य-अनुत्कृष्ट अनन्तानन्त को ग्रहण करना चाहिए, ऐसा परिकर्म वचन है।"
(१०) उपर्युक्त क्षुद्रकबन्ध के अन्तर्गत स्पर्शनानुगम में प्रथम पृथिवी के नारकियों का स्पर्शन-क्षेत्र, स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद पदों की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग निर्दिष्ट किया गया है। सूत्र २,७,६-७
इसे स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि प्रथम पृथिवी के नारकियों द्वारा अतीत काल में मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदों की अपेक्षा तीन लोकों का असंख्यातवाँ भाग, तिर्यग्लोक का संख्यातवाँ भाग और अढाई द्वीप से असंख्यात गुणा क्षेत्र स्पर्श किया गया है।
१. धवला, पु० ४, पृ० ३८६-६० २. धवला, पु० ४, पृ० ४०२-३ ३. धवला, पु० ७, पृ० १४५ ४. धवला, पु० ७,१० २८५
प्रन्थोल्लेख | ५९१
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