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________________ के अनन्तवें भाग अनन्त होते हैं (५०८-६)। अनन्तरप्ररूपणा के अनुसार एक-एक स्पर्धक का अन्तर सब जीवों से अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेदों से होता है (५१०-११)। शरीरप्ररूपणा के अनुसार शरीरबन्धन के कारणभूत गुणों का बुद्धि से छेद करने पर अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद उत्पन्न होते हैं । प्रसंगवश यहाँ उस छेदना के दस भेद निर्दिष्ट किये गये हैं- नामछेदना, स्थापनाछेदना, द्रव्यछेदना, शरीरबन्धनगुणछेदना, प्रदेशछेदना, वल्लरिछेदना, अणुछेदना, तटछेदना, उत्पातछेदना और प्रज्ञाभावछेदना (५१२-१४)। __शरीर अनन्तानन्त पुद्गलों के समवायस्वरूप है। जिस गुण के निमित्त से उन पुद्गलों का परस्परबन्ध होता है उसका नाम बन्धनगुण है । उस गुण का बुद्धि से छेद करने पर अनन्त अविभागप्रतिच्छेद उत्पन्न होते हैं । गुण का छेद बुद्धि से ही किया जा सकता है। इसी से यहाँ उपर्युक्त दस छेदनाओं में अन्तिम प्रज्ञाछेद विवक्षित है। अल्पबहत्वप्ररूपणा में औदारिक शरीर के अविभागप्रतिच्छेद सबसे कम, वैक्रियिकशरीर के अनन्तगुणे, आहारकशरीर के अनन्तगुणे, तैजसशरीर के अनन्तगुणे और कार्मण शरीर के अनन्तगुणे निर्दिष्ट किये गये हैं (५१५-१६) । इस प्रकार शरीरविस्रसोपचय प्ररूपणा समाप्त हुई है। ४. विस्रसोपचय प्ररूपणा यह बाह्य वर्गणा के अन्तर्गत पूर्वोक्त चार अनुयोगद्वारों में अन्तिम है । यहाँ इस विस्रसोपचय प्ररूपणा के अनुसार एक-एक जीवप्रदेश पर कितने विस्रसोपचय उपचित हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि एक-एक जीवप्रदेश पर सब जीवों से अनन्तगुणे अनन्त विस्रसोपचय उपचित हैं । वे सब लोक से आकर उपचित होते हैं (५२०-२२)। ___ 'जीवप्रदेश' से यहाँ आधेय में आधार का उपचार करके परमाणु अभिप्रेत है। अभिप्राय यह है कि जीव के द्वारा छोड़े गए पाँच शरीरगत पुद्गल सब आकाशप्रदेशों से सम्बद्ध होकर रहते हैं। ___ आगे जीव से पृथक् होकर सब लोक में व्याप्त हुए उन पुद्गलों में जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार प्रकार की हानि होती है उसकी यहाँ प्ररूपणा की गई है (५२३-४३)। इसी प्रसंग में आगे जघन्य व उत्कृष्ट औदारिक आदि पाँच शरीरों के जघन्य व उत्कृष्ट पद में जघन्य व उत्कृष्ट विस्रसोपचयक अल्पबहुत्व को प्रकट करते हुए उन विस्रसोपचयों की प्ररूपणा में प्रयोजनीभूत जीवप्रमाणानुगम, प्रदेशप्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों का आश्रय लिया गया है (५४४-५५) । उनमें जीवप्रमाणानुगम के अनुसार पृथिवीकायिक आदि जीवों के प्रमाण को और प्रदेशप्रमाणानुगम के अनुसार उन पृथिवीकायिकादि जीवों के जीवप्रदेशों के प्रमाण को प्रकट किया गया है (५५६-६७)। अल्पबहुत्व के आश्रय से क्रमशः जीवों के व प्रदेशों के प्रमाण को प्रकट किया गया है (५६८-८०)। ___ इस प्रकार इस विस्रसोपचय प्ररूपणा के समाप्त होने पर बाह्य वर्गणा समाप्त हुई है। १३२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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