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अवतरणवाक्यांश सोहम्मे माहिंदे... ___ होदि अट्ठगुष्ठां सोहम्मे माहिंदे... __ होदि पंचगुणं सोहम्मे सत्तगुणं स्याद्वावमविभक्तार्थ स्वयं अहिंसा स्वयमेव हय-हत्थि-रहाणहिया हारान्तरहृतहारा हेट्टामज्झे उरि हेट्टिमगेवज्जेसु अ हेतावेवं प्रकारादौ
आ०मी०५५
७६७
१
२६५ ३०० १६७ ६० ५७ ४७ ११ ३२० १४ २३७
७६६ ७७० ७७१
जं० दी० ५० ११-१०६ मूला० १२-२६ धन० अने० नाममाला ३६
१३
१८६
७७२ ७७३ ७७४ ७७५
हेदूदाहरणासंभवे होति अणियट्टिणो ते होंति कमविसुद्धाओ होंति सुहा सव-संवर
ध्यानश०४८ पंचसं० १-२१, गो०जी० ५७ ध्यानश० ६६
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उपसंहार __जैसा कि उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो चुका है, प्रस्तुत षट्खण्डागम पर इस महत्त्वपूर्ण विशाल धवला टीका के रचयिता बहुश्रुतशाली आचार्य वीरसेन रहे हैं। उन्होंने मूल ग्रन्थ में निर्दिष्ट विषय का विशदीकरण ग्रन्थकार के मनोगत अभिप्राय की सीमा से सम्बद्ध रहकर ही किया है । प्रसंगप्राप्त विषय का विस्तार यदि कहीं अपेक्षित रहा है तो मूलग्रन्थकार के अभिप्राय का ध्यान रखते हुए ही उन्होंने उसे परम्परागत श्रुत के आधार से विस्तृत किया है। उनकी इस धवला टीका से निम्न तथ्य प्रसूत हुए हैं
१. आठ प्रकार के ज्ञानाचार के चतुर्थ भेदभूत 'बहुमान' ज्ञानाचार का पूर्णतया निर्वाह करते हुए उन्होंने प्रसंगप्राप्त विषय के विवेचन में सूत्र और सूत्रकार की आसादना नहीं होने दी है, दोनों की प्रतिष्ठा को निर्बाध रक्खा है।
२. सूत्रकार द्वारा निर्दिष्ट, पर स्वयं उनके द्वारा अप्ररूपित, प्रसंगप्राप्त विषय की प्ररूपणा उन्होंने आगमाविरोधपूर्वक प्राप्त श्रुतज्ञान के बल पर विस्तार से की है ।
३. विरुद्ध मतों के प्रसंग में उन्होंने सूत्राश्रित व्याख्यान को प्रधानता दी है।
४. सूत्र के उपलब्ध न होने पर विवक्षित विषय के व्याख्यान में उन्होंने आचार्य-परम्परागत उपदेश को और गुरु के उपदेश को भी प्रधानता दी है।
५. कुछ प्रसंगों पर सूत्र के विरुद्ध जाने वाली अन्य आचार्यों की मान्यताओं को अप्रमाण घोषित कर सूत्रानुसारिणी युक्ति के बल पर उन्होंने उस प्रसंग में दृढ़तापूर्वक स्वयं के अभिमत को भी प्रस्थापित किया है ।
अवतरण-वाक्य | ७६९
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