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________________ काल और भावकाल। यथाक्रम से उनके स्वरूप बतलाते हुए उन्होंने पल्लवित, अंकुरित, कुलित, करलित, पुष्पित, मुकुलित एवं कोयलों के मधुर आलाप से परिपूर्ण ऐसे वनखण्ड से प्रकाशित चित्र में लिखित वसन्त को सद्भावस्थापनाकाल और मणिभेद व मिट्टी के ठीकरों आदि में 'यह वसन्त है' इस प्रकार की बुद्धि से की जानेवाली स्थापना को असद्भावस्थापनाकाल कहा है। नोआगमद्रव्यकाल के प्रसंग में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्र व्यकाल का स्वरूप बतलाते हुए धवला में उल्लेख है कि दो गन्ध, पाँच रस, आठ स्पर्श और पाँच वर्ण से रहित होकर जो कुम्हार के चाक के नीचे की शिल के समान वर्तनास्वरूप है उसे तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल कहा जाता है, तथा वह लोकाकाश के प्रमाण है। ___ उसी प्रसंग में विशेष रूप से यह भी स्पष्ट कर दिया है कि जीवस्थानादि में चूंकि द्रव्यकाल की प्ररूपण नहीं की गयी है, इसलिए उसका सद्भाव ही नहीं है। ऐसा नहीं कहा जा सकता। जीवस्थानादि में उसकी प्ररूपणा न करने का कारण वहाँ छह द्रव्यों का प्ररूपणाविषयक अधिकार का न होना है। इसलिए 'द्रव्यकाल का अस्तित्व है', ऐसा ग्रहण करना चाहिए । नोआगमभावकाल के स्वरूप का निर्देश करते हुए कहा गया है कि द्रव्यकाल के निमित्त से जो परिणाम (परिणमन) होता है उसे नोआगमभावकाल कहते हैं। यहाँ नोआगमभावकाल को प्रसंगप्राप्त कहा गया है। यह नोआगमभावकाल समय, आवली व क्षण आदि स्वरूप है। समय के स्वरूप को प्रकट करते हुए कहा गया है कि एक परमाणु जितने काल में दूसरे परमाणु का अतिक्रमण करता है उसका नाम समय है । पुनश्च परमाणु जितने काल में चौदह राजु प्रमाण आकाश प्रदेशों का अतिक्रमण कर सकता है, उतने ही काल में वह मन्दगति से एक परमाणु से दूसरे परमाणु का भी अतिक्रमण करता है। उसके इतने काल को समय कहा गया है। ___यहाँ यह शंका की गयी है कि पुद्गलपरिणामस्वरूप इन समय, आवली आदि को काल कैसे कहा जा सकता है। इसके समाधान में 'कल्यन्ते संख्यायन्ते कर्म-भव-कायायुस्थितयोऽनेनेति कालशब्दव्युत्पत्तेः' ऐसी 'काल' शब्द की निरुक्ति के अनुसार कहा गया है कि उसके आश्रय से कर्म, भव, आयुस्थिति आदि की संख्या की जाती है, इसलिए उसे काल कहा जाता है। इसके पूर्व वहाँ यह भी कहा जा चुका है कि कार्य में कारण के उपचार से उसे काल कहा गया है । काल, समय और अद्धा ये समानार्थक शब्द हैं। आगे धवला में कुछ काल विभागों का स्पष्टीकरण इस प्रकार से किया गया है __ असंख्यात समयों की एक आवली होती है। तत्प्रायोग्य असंख्यात आवलियों का एक उच्छवास-निःश्वास होता है। सात उच्छवासों का स्तोक होता है। सात स्तोकों का लव होता है। साढ़ अड़तीस लवों की नाली होती है। दो नालियों का मुहूर्त होता है । तीस मुहूर्तों का दिवस होता है। पन्द्रह दिवसों का पक्ष होता है। दो पक्षों का मास होता है। बारह मासों का वर्ष और पांच वर्षों का युग होता है। धवला में कल्पकाल तक इसी क्रम से काल विभागों के प्रमाण के कहने की प्रेरणा कर दी गयी है।' १. इस सबके लिए देखिए धवला पु०४, पृ०३१३-२० । (जिज्ञासुजन कल्प काल तक के कालविभागों को तिलोयपण्णत्ती ४; २८४-३०८ गाथाओं में देख सकते हैं। तुलनात्मक अध्ययन के लिए ति० प० २, की प्रस्तावना पृ० ८० और परिशिष्ट पृ० ६६७-६८ द्रष्टव्य हैं ।) षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ४१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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