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________________ स्थान से सम्बन्बित द्रव्यप्रमाण की प्ररूपणा की गयी है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि कौन यह कहता है कि सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ? वे वहाँ मारणान्तिक समुद्घात को करते हैं ऐसा हमारा निश्चय है। पर वे वहाँ उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि आयुकाल के समाप्त होने पर उनके सासादनगुणस्थान नहीं पाया जाता है। इस पर यह शंका उत्पन्न हुई है कि जहाँ सासादनसम्यग्दृष्टियों की उत्पत्ति सम्भव नहीं है वहाँ भी यदि वे मारणान्तिक समुद्घात करते हैं तो सातवीं पृथिवी के नारकी भी सासादन गुणस्थान के साथ पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में मारणान्तिक समुद्धात कर सकते हैं, क्योंकि सासादन गुणस्थान की अपेक्षा दोनों में कुछ विशेषता नहीं है। इसके समाधान में वहाँ यह कहा गया है कि उन दोनों में जातिभेद के कारण उपर्युक्त दोष सम्भव नहीं है। और फिर नारकियों का स्वभाव जहां गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में उत्पन्न होने का है वहाँ देवों का स्वभाव पंचेन्द्रियों में और एकन्द्रियों में भी उत्पन्न होने का है। इसलिए दोनों समान जातिवाले नहीं हैं। पुनः यह शंका की गयी है कि एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्धात को करनेवाले देव समस्त लोकगत एकेन्द्रियों में उसे क्यों नहीं करते हैं । इसके समाधान में कहा गया है कि ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि लोकनाली के बाहर उत्पन्न होने का उनका स्वभाव नहीं है, इत्यादि। इसी प्रकार उनके उपपाद के प्रसंग में भी धवलाकार ने बतलाया है कि कितने ही आचार्य यह कहते हैं कि देव नियम से मूल शरीर में प्रविष्ट होकर ही मरण को प्राप्त होते हैं । तदनुसार उपपाद की अपेक्षा उनका स्पर्शनक्षेत्र कुछ कम १० बटे १४ भाग होता है । इस मत का निराकरण करते हुए धवलाकार कहते हैं कि उनका यह कथन सूत्र के विरुद्ध पड़ता है, क्योकि यहीं पर कार्मणशरीरवाले सासादनसम्यग्दृष्टियों का उपपाद सम्बन्धी स्पर्शनक्षेत्र ११ बटे १४ भाग कहा गया है। अतः सूत्र के विरुद्ध होने से उनका वह व्याख्यान ग्रहण नहीं करना चाहिए । ____ इसी प्रकार जो आचार्य यह कहते हैं कि देव सासादनसम्यग्दृष्टि एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनके अभिमतानुसार उनका उपपाद सम्बन्धी स्पर्शक्षेत्र कुछ कम १२ बटे १४ भाग होता है, यह व्याख्यान भी चूँकि पूर्वोक्त सत्प्ररूपणासूत्र और द्रव्यप्रमाणानुगमसूत्र के विरुद्ध पड़ता है, इसलिए वह भी ग्रहण करने योग्य नहीं है।' __ आगे इसी पद्धति से ओघ की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टि आदि शेष गुणस्थानों में तथा आदेश की अपेक्षा गति-इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में यथाक्रम से प्रस्तुत स्पर्शन की प्ररूपणा की गयी है । इस प्रकार यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । ५. कालानुगम 'कालानुगम' यह जीवस्थान का पाँचवाँ अनुयोगद्वार है। यहाँ प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने काल के इन चार भेदों का निर्देश किया है-नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्य १. सूत्र १,२,७४-७६ (पु० ३ पृ० ३०५-७) २. कम्मइयकायजोगीसु मिच्छादिट्ठी ओघं । सासणसम्मादिट्ठीहि केवडियं खेतं फासिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो । एक्कारह चोद्दसभागा देसूणा । -सूत्र १,४,६६-६८ (पु० ४, पृ० २६९-७०) ३. धवला पु. ४, पृष्ठ १४८-६५ द्रष्टव्य हैं। ४१२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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