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७. घेदनाभावविधान-इसमें भी वे ही तीन अनुयोगद्वार हैं—पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व।
पदमीमांसा में भाव की अपेक्षा ज्ञानावरणीय आदि वेदनाएँ क्या उत्कृष्ट हैं, क्या अनुत्कृष्ट हैं, क्या जघन्य हैं, और क्या अजघन्य हैं, इन पदों का विचार किया गया है (१-५)।
स्वामित्व में उन्हीं ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की भाववेदनाविषयक उपर्युक्त उत्कृष्टअनुकष्ट आदि पदों के स्वामियों की प्ररूपणा की गई है । यथा
स्वामित्व दो प्रकार का है-उत्कृष्ट पदविषयक और जघन्य पदविषयक । इनमें उत्कृष्ट पद के अनुसार ज्ञानावरणीयवेदना भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है, इसका विचार करते हुए कहा गया है कि नियम से अन्यतर पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, सभी पर्याप्तियों से पर्याप्त, जागृत और उत्कृष्ट संक्लेश से सहित ऐसे जीव के द्वारा बाँधे गये उत्कृष्ट अनुभाग का जिसके सत्त्व होता है उसके भाव की अपेक्षा वह ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट होती है। वह एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय इनमें कोई भी हो सकता है; वह संज्ञी भी हो सकता है और असंज्ञी भी; अथवा बादर भी हो सकता है और सूक्ष्म भी; पर्याप्त भी हो सकता है व अपर्याप्त भी हो सकता है। इसी प्रकार वह चारों गतियों में से किसी भी गति में वर्तमान हो सकता है-इन अवस्थाओं में उसके लिए कोई विशेष नियम नहीं है। इस से भिन्न भाव की अपेक्षा ज्ञानवरणीयवेदना अनुत्कृष्ट होती है (६-१०)।
आगे दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तरायवेदनाओं के विषय में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणीय के उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट अनुभाग की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इन तीन घातिया कर्मों के भी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट अनुभाग की प्ररूपणा करना चाहिए-उससे इनमें कोई विशेषता नहीं हैं (११)।।
वेदनीयवेदना भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है, इसका विचार करते हुए आगे कहा गया है कि जिस अन्यतर सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत क्षपक ने अन्तिम समय में उसके उत्कृष्ट अनुभाग को बाँधा है उसके भाव की अपेक्षा वेदनीयवेदना उत्कृष्ट होती है, साथ ही जिसके उसका उत्कृष्ट सत्त्व है। वह उसका-उसका सत्त्व क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ व सयोगिकेवली के होता है। अतः उनके भी भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट वेदनीयवेदना होती है । इससे भिन्न भाव की अपेक्षा वेदनीयवेदना अनुत्कृष्ट होती है (१२-१५)।। ____ अभिप्राय यह है कि सातावेदनीय के उत्कृष्ट अनुभाग को बाँधकर क्षीणकषाय, सयोगी और अयोगी गुणस्थानों को प्राप्त हुए जीव के इन गुणस्थानों में भी वेदनीय का उत्कृष्ट अनुभाग होता है । सूत्र में यद्यपि 'अयोगी' शब्द नहीं है, फिर भी धवलाकार के अभिप्रायानुसार सूत्र में उपयुक्त दो 'वा' शब्दों में से दूसरे 'वा' शब्द से उसकी सूचना की गई है।
भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट नाम और गोत्र वेदनाओं की प्ररूपणा उपर्युक्त वेदनीयवेदना के समान है (१६)। _आगे भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट आयुवेदना के स्वामी की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि साकार उपयोग से युक्त, जागृत और तत्प्रायोग्य विशुद्धि से सहित अन्यतर अप्रमत्तसंयत के द्वारा बाँधे गए उसके उत्कृष्ट अनुभाग का सत्त्व जिसके होता है उसके भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट अायुवेदना होती है। उसका सत्त्व संयत अथवा अनुत्तर विमानवासी देव के होता है, अतएव उसके वह भाव की अपेक्षा उत्कृष्ट आयुवेदना जानना चाहिए । साथ ही जिस
६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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