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________________ द्वारा की गयी है।' आगे वहाँ 'अन्य कहते हैं ऐसी सूचना करते हुए उपर्युक्त संघनामों के विषय में कुछ मतभेद भी प्रकट किया गया है। ठीक इसके अनन्तर उस श्रुतावतार में कहा गया है कि तत्पश्चात् मुनियों में श्रेष्ठ माघनन्दी नामक मुनि हुए, जो अंगपूर्वो के एकदेश को प्रकाशित कर समाधिपूर्वक स्वर्गस्थहुए । . माघनन्दी मुनि के विषय में जो एक कथानक प्रसिद्ध है तदनुसार वे किसी समय जब चर्या के लिए निकले तब उनका प्रेम एक कुम्हार की लड़की से हो गया। इससे वे संघ में वापस न जाकर वहीं रह गये। तत्पश्चात् किसी समय संघ में किसी सूक्ष्म तत्त्व के विषय में मतभेद उपस्थित हुआ । तब संघाधिपति ने उसका निर्णय करने के लिए साधुओं को माघनन्दी के पास भेजा । उनके पास पहुँचकर जब साधुओं ने विवादग्रस्त उस तत्त्व के विषय में माघनन्दी से निर्णय माँगा तब उन्होंने उनसे पूछा कि संघ क्या मुझे अब भी यह सन्मान देता है। इस पर मुनियों के यह कहने पर कि 'श्रुतज्ञान का सन्मान सदा होने वाला है' वे पुनः विरक्त होकर वहां रखे हुए पीछी-कमण्डलु को लेकर संघ में जा पहुँचे व पुनर्दीक्षित हो गये। उनके विषय में इसी प्रकार का एक भजन भी प्रसिद्ध है । अन्यत्र माघनन्दी का उल्लेख एक माघनन्दी का उल्लेख मुंनि पद्मनन्दी विरचित 'जंबूदीवपण्णत्तिसंगहो' में भी किया गया है । वहाँ उन माघनन्दी गुरु को राग-द्वेष-मोह से रहित श्रुतसागर के पारगामी और तप-संयम से सम्पन्न कहा गया है। उनके शिष्य सिद्धान्त रूप महासमुद्र में कलुष को धौनेवाले सकलचन्द्र गुरु और उनके भी शिष्य सम्यग्दर्शन से शुद्ध विख्यात श्रीनन्दी रहे हैं, जिनके नमित्त जम्बूद्वीप की प्रज्ञप्ति लिखी गयी । उक्त श्रुतावतार में उन माघनन्दी के पश्चात् सुराष्ट्र देश में गिरिनगरपुर के समीपवर्ती कर्जयन्त पर्वत के ऊपर चन्द्र गुफा में निवास करनेवाले महा तपस्वी मुनियों में प्रमुख उन रिसेनाचार्य का उल्लेख किया गया है जो अग्रायणीय पूर्व के अन्तर्गत पाँचवें 'वस्तु' अधिकार के स प्राभृतों में चौथे प्राभूत के ज्ञाता थे।६ । धवला के अनुसार धरसेन भट्टारक ने आचार्य-सम्मेलन के लिए जो लेख भेजा था, १. आयतौ नन्दि-वीरौ प्रकटगिरिगुहावासतोऽशोकवाटाद् देवश्चान्योऽपराजित इति यतियौ सेन-भद्राह्व यौ च । पञ्चस्तूप्यात् सगुप्तौ गुणधरवृषभः शाल्मली वृक्षमूला निर्यातौ सिंह-चन्द्रौ प्रथिगुण-गणौ केसरात् खण्डपूर्वात् ॥—इ० श्रुता० ६६ २. इ० श्रुतावतार ६७-१०१ ३. वही, १०२ ४. जैन सिद्धान्त-भास्कर, सन् १९१३, अंक ४, पृ० ११५ (धवला पु० १ की प्रस्तावना पृ० १६-१७) ५. जं० दी० प० १३, १५४-५६ ६. इ० श्रुतावतार १०३-४ :/ षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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