SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 506
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है। समाधान में धवलाकार ने कहा है कि वहाँ 'सूक्ष्म निगोद सूक्ष्मवनस्पतिकायिक ही होते हैं' ऐसा अवधारण नहीं किया गया है, इसीलिए उसके साथ विरोध की सम्भावना नहीं है, इत्यादि। आगे इसी प्रसंग में धवला में यह भी शंका की गयी है कि 'निगोद सब वनस्पतिकायिक ही होते हैं, अन्य नहीं' इस अभिप्राय से भी इस 'भागाभाग' में कुछ सूत्र अवस्थित हैं, क्योंकि सूक्ष्मवनस्पतिकायिक से सम्बद्ध उस भागाभाग में तीनों (२६,३१ व ३३) ही सूत्रों में 'निगोद जीवों' का निर्देश नहीं किया गया है। इसलिए उनके साथ इन सूत्रों के विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यदि ऐसा है तो उपदेश प्राप्त करके 'यह सूत्र है व यह असूत्र है' ऐसा आगम में निपुण कह सकते हैं, हम तो उपदेश प्राप्त न होने से यहाँ कुछ कहने के लिए असमर्थ हैं (धवला पु० ७, पृ० ५०४-७) । चूलिका इस क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत ११ अनुयोगद्वारों के समाप्त होने पर 'महादण्डक' नाम से चूलिका प्रकरण भी आया है । यहाँ धवला में यह शंका उठायी गयी है कि ग्यारह अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर इस महादण्डक को क्षुद्रकबन्ध के पूर्वोक्त ग्यारह अनुयोगद्वारों से सम्बद्ध चूलिका के रूप में कहा गया है। धवला में कहा गया है कि ग्यारह अनुयोगद्वारों से सूचित अर्थ की विशेषतापूर्वक प्ररूपणा करना, इस चूलिका का प्रयोजन रहा है। इस पर शंकाकार ने कहा है कि तब तो इस महादण्डक को चूलिका नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसमें 'अल्पबहुत्व' अनुयोगद्वार से सूचित अर्थ को छोड़ अन्य अनुयोगद्वारों में निर्दिष्ट अर्थ की प्ररूपणा नहीं है । उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि यह कोई नियम नहीं है कि चूलिका सभी अनुयोगद्वारों से सूचित अर्थ की प्ररूपक होना चाहिए। एक, दो अथवा सभी अनुयोगद्वारों से सूचित अर्थ की जहाँ विशेष रूप से प्ररूपणा की जाती है उसे चलिका कहा जाता है। यह मा भी चूलिका ही है, क्योंकि इसमें अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार से सूचित अर्थ की विशेषता के साथ प्ररूपणा की गई है (पु० ७, पृ० ५७५)। इस महादण्डक में भी वनस्पतिकायिकों से निगोद जीवों को विशेष रूप से निर्दिष्ट किया गया है (सूत्र ७८-७६)। तीसरा खण्ड : बन्धस्वामित्वविचय बन्धस्वामित्वविचय का उद्गम और उसका स्पष्टीकरण धवलाकार ने यहाँ प्रथम सूत्र "जो सो बंधसामित्तविचओ णाम" इत्यादि की व्याख्या में कहा है कि यह सूत्र सम्बन्ध, अभिध्येय और प्रयोजन का सूचक है । सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि कृति-वेदनादि २४ अनुयोगद्वारों में छठा 'बन्धन' अनुयोगद्वार चार प्रकार का है--बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । इनमें 'बन्ध' अधिकार नय के आश्रय से जीव और कर्मों के सम्बन्ध की प्ररूपणा करता है। दूसरा 'बन्धक' अधिकार ग्यारह अनुयोगद्वारों के आश्रय से बन्धकों का प्ररूपक है। तीसरा 'बन्धनीय' अधिकार तेईस प्रकार की वर्गणाओं के आश्रय से बन्ध के योग्य और अयोग्य पुद्गलद्रव्य की प्ररूपणा करनेवाला है। चौथा 'बन्धविधान' ४५२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy