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________________ अनादि है, (२२) क्या ध्रुव है, और (२३) क्या अध्र व है; इन २३ पृच्छाओं को उसके अन्तर्गत समझना चाहिए। इस अभिमत की पुष्टि हेतु धवला में वहाँ 'एत्थुवउज्जतीओ आरिसगाहाओं' ऐसी सूचना कर चार गाथाओं को उद्धृत किया है (पु० ८, पृ० ७-८)। तत्पश्चात् वहाँ इन पृच्छाओं में विषम पृच्छाओं के अर्थ की सूचना करते हुए कहा है कि बन्ध का व्युच्छेद तो यहाँ सूत्रों से सिद्ध है, अतएव उसे छोड़कर पहिले उदय के व्युच्छेद को कहते हैं। इस प्रतिज्ञा के साथ धवलाकार ने यहाँ यथाक्रम से मिथ्यात्व व सासादन आदि चौदह गणस्थानों से क्रमशः उदय से व्युच्छिन्न होनेवाली दस व चार आदि प्रकृतियों का उल्लेख किया है। आगे 'एत्थ उपसंहारगाहा' के रूप में जिस गाथा को वहां उद्धत किया गया है वह कर्मकाण्ड में (२६३ गाथांक के रूप में) ग्रन्थ का अंग बन गयी है (पु० ८, पृ० ६-११)। यहाँ यह विशेषता रही है कि मिथ्यादृष्टि के अन्तिम समय में उदय से व्युच्छिन्न होनेवाली मिथ्यात्व व एकेन्द्रिय आदि १० प्रकृतियो के नामों का निर्देश करते हुए धवलाकार ने बताया है कि उनका यह उल्लेख महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के उपदेशानुसार किया गया है। किन्तु चूर्णिसत्रकर्ता (यतिवृषभाचार्य) के उपदेशानुसार उन १० प्रकृतियों में से पांच का ही उदयव्युच्छेद मिथ्यादष्टि गुणस्थान में होता है, एकेन्द्रियादि चार जातियों और स्थावर इन पांच का उदयव्युच्छेद सासादनसम्यग्दृष्टि के होता है । अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि चार का उदयव्युच्छेद सासादनसम्यग्दृष्टि के अन्तिम समय में होता है। गो० कर्मकाण्ड में भी दो मतों के अनुसार उदय से व्युच्छिन्न होनेवाली प्रकृतियों की संख्या का पृथक पृथक् निर्देश है । पर वहाँ गुणस्थान क्रम से उदय से व्युच्छिन्न होनेवाली उन प्रकृतियों का उल्लेख दूसरे (यतिवृषभाचार्य क) मत के अनुसार किया गया है (गो००, गा० २६३७२). यद्यपि वहाँ यतिवृषभ का नामोल्लेख नहीं है । धवला में दोनों मतों का निर्देश नामोल्लेख के साथ है। ___ आग वहाँ किन प्रकृतियों का बन्ध उनके उदय के नष्ट हो जाने पर होता है, किन का उदय बन्ध के नष्ट होन पर होता है और किन का बन्ध और उदय दोनों साथ ही व्युच्छिन्न होते हैं, इस सब का विवेचन धवला में किया गया है (पु० ८, पृ० ११-१३)। पर्व सत्र (५) में जो पाँच ज्ञानावरणीय आदि सोलह प्रकृतियों के बन्धक-बन्धकों के विषय में पूछा गया था उनके उत्तर में अगले सूत्र (६) में यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि से लेकर सक्ष्मसाम्परायिक-शुद्धिसंयत उपशमक व क्षपक तक उनके बन्धक हैं। सूक्ष्मसाम्परायिकसंयतकाल के अन्तिम समय में उनके बन्ध का व्युच्छेद होता है । ये बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं । इस सूत्र की व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि पूर्व सून में जो यह पूछा गया था कि बन्ध क्या अन्तिम समय में व्युच्छिन्न होता है, प्रथम समय में व्युच्छिन्न होता है अथवा अप्रथमअचरम समय में व्युच्छिन्न होता है, उसमें सूत्रकार ने प्रथम और अप्रथम-अचरम समय के प्रतिषेधरूप में प्रत्युत्तर दिया है। शेष प्रश्नों का उत्तर सूत्र में नहीं दिया गया है। चूंकि यह सूत्र देशामर्शक है, इसलिए यहाँ सूत्र में अन्तहित अर्थों की प्ररूपणा है। तदनुसार आगे धवला म, क्या बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है, क्या दोनों साथ साथ व्युच्छिन्न होते हैं। इस प्रकार उन तेईस प्रश्नों में से प्रथमतः इन तीन प्रश्नों को स्पष्ट करते हुए कहा है कि उक्त सोलह प्रकृतियों का बन्ध उदय के पूर्व सूक्ष्मसाम्परायिक के अन्तिम समय में नष्ट होता है और फिर उनके उदय का व्युच्छेद होता है। कारण यह कि पांच ज्ञानावरणीय, ४५४ / षट्नण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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