________________
१४. पंचत्यिपाहुड-आचार्य कुन्दकुन्द-विरचित पंचत्थिपाहुड (पंचास्तिप्राभृत) यह पाँच अस्तिकाय द्रव्यों का प्ररूपक एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। उसका उल्लेख धवला में इस प्रकार किया गया
(१) जीवस्थान-कालानुगम में कालविषयक निक्षेप की प्ररूपणा करते हुए धवला में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल के प्रसंग में धुत्तं च पंचत्थिपाहुडे ववहारकालस्स अस्थित्तं' इस प्रकार ग्रन्थनामनिर्देशपूर्वक उसकी "कालोत्तिय ववएसो" आदि और "कालो परिणामभवो" आदि इन दो गाथाओं को विपरीत क्रम से (१०१ व १००) उद्धृत किया गया है।'
(२) आगे वेदनाकालविधान अनुयोगद्वार में तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्र व्यकाल को प्रधान और अप्रधान के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। उनमें प्रधान द्रव्यकाल के स्वरूप का निर्देश करते हुए धवला में कहा गया है कि शेष पांच द्रव्यों के परिणमन का हेतुभूत जो रत्नराशि के समान प्रदेशसमूह से रहित लोकाकाश के प्रदेशों प्रमाण-काल है, उसका नाम प्रधान द्रव्यकाल है। वह अमूर्त व अनादिनिधन है। उसकी पुष्टि में आगे 'उक्तं च' इस सूचना के साथ ग्रन्थनामनिर्देश के बिना पंचास्तिकाय की उपर्युक्त दोनों (१०० व १०१) गाथाओं को यथाक्रम से वहां उद्धृत किया गया है ।।
विशेषता यह है कि यहां इन दोनों गाथाओं के मध्य में अन्य दो गाथाएं भी उद्धृत हैं, जो गो०जी० में भी ५६६-५८८ गाथाओं में उपलब्ध होती हैं।
(३) पूर्वोक्त जीवस्थान-कालानुगम में उसी कालविषयक निक्षेप के प्रसंग में धवलाकार ने द्रव्यकालजनित परिणाम को नोआगमभावकाल कहा है। इस पर वहाँ यह शंका की गयी है कि पुद्गलादि द्रव्यों के परिणाम को 'काल' नाम से कैसे व्यवहृत किया जाता है। इसके उत्तर में वहां कहा गया है कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि उसे जो 'काल' नाम से व्यवहृत किया जाता है वह कार्य में कारण के उपचार से किया जाता है। इसकी पुष्टि में वहां 'वुत्तं च पंचस्थिपाहुडे ववहारकालस्स अत्थित्तं' ऐसी सूचना करते हुए पंचास्तिकाय की २३, २५ और २६ इन तीन गाथाओं को उद्धृत किया गया है।
(४) जीवस्थान सत्प्ररूपणा में प्रस्तुत षट्खण्डागम का पूर्वश्रुत से सम्बन्ध दिखलाते हुए स्थानांग के प्रसंग में धवला में कहा गया है कि वह ब्यालीस हजार पदों के द्वारा एक को आदि लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक के क्रम से स्थानों का वर्णन करता है। आगे वहाँ 'तस्सोदाहरणं ऐसा निर्देश करते हुए ग्रन्थनाम-निर्देश के बिना पंचास्तिकाय की ७१ व ७२ इन दो गाथाओं को उद्धृत किया गया है। । ये दोनों गाथाएँ आगे इसी प्रसंग में धवलाकार द्वारा 'कृति' अनुयोगद्वार में पुनः उद्धृत हैं । विशेषता वहाँ यह रही है कि स्थानांग के स्वरूप में एक को आदि लेकर उत्तरोत्तर एक-एक अधिक के क्रम से जीवादि पदार्थों के दस-दस स्थानों की प्ररूपणा का उल्लेख किया गया है।
१. धवला, पु० ४, पृ० ३१७ २. धवला, पु० ११, पृ०७५-७६ ३. धवला, पु० ४, पृ० ३१७ ४. धवला, पु० १, पृ० १०० ५. धवला. पु० ६, पृ० १६८
ग्रन्थोल्लेख/ ५६५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org