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________________ इसका निराकरण करते हुए धवला में कहा गया है कि 'अपदेश' का अर्थ निरवयव नहीं है। यथा-प्रदेश नाम परमाणु का है, वह जिस परमाणु में समवेत रूप से नहीं रहता है, उस परमाणु को परिकर्म में अप्रदेश कहा गया है। आगे धवलाकार ने परमाणु को स्कन्ध की अन्यथानुपपत्ति रूप हेतु से सावयव सिद्ध किया है।' (१५) आगे 'प्रकृति' अनुयोगद्वार में प्रसंग-प्राप्त बीस प्रकार के श्रुतज्ञान की प्ररूपणा करते हुए धवला में लब्ध्यक्षर ज्ञान के प्रसंग में यह कहा गया है कि उसमें सब जीवराशि का भाग देने पर सब जीवराशि से अनन्त गुणे ज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद आते हैं। ___इस प्रसंग में वहाँ यह पूछा गया है कि लब्ध्यक्षर ज्ञान सब जीवराशि से अनन्त गुणा है, यह कहाँ से जाना जाता है । इसके उत्तर में यह कहकर, कि वह परिकर्म से जाना जाता है, आगे धवला में प्रसंग-प्राप्त परिकर्म के उस सन्दर्भ को उद्धृत भी कर दिया गया है। (१६) यहीं पर आगे काल की अपेक्षा अवधिज्ञान के विषय के प्रसंग में सूत्रकार ने समय व आवलि आदि कालभेदों को ज्ञातव्य कहा है।-सूत्र ५, ५, ५६ इसकी व्याख्या के प्रसंग में क्षण-लव आदि के स्वरूप को प्रकट करते हुए धवलाकार ने स्तोक को क्षण कहकर उसे संख्यात आवलियों का प्रमाण कहा है और उसकी पुष्टि "संख्यात आवलियों का एक उच्छ्वास और सात उच्छ्वासों का एक स्तोक होता है" इस परिकर्मवचन से की है। (१७) पूर्वोक्त वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में वर्गणाप्ररूपणा के प्रसंग में धवलाकार ने एकप्रदेशिक परमाणुपुद्गल द्रव्यवर्गणा को परमाणु स्वरूप कहा है। इस पर वहाँ यह शंका उठायी गयी है कि परमाणु तो अप्रत्यक्ष है, क्योंकि वह इन्द्रिय के द्वारा ग्रहण करने के योग्य नहीं है। इसलिए यहाँ सूत्र (५, ६, ७६) में जो उसके लिए 'इमा' अर्थात् 'यह' ऐसा प्रत्यक्ष निर्देश किया गया है वह घटित नहीं होता है। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि आगम-प्रमाण से उसका प्रत्यक्ष बोध सिद्ध है, इस प्रकार उसके प्रत्यक्ष होने पर उसके लिए सूत्र में 'इमा' पद के द्वारा जो प्रत्यक्ष-निर्देश किया गया है, वह संगत है। * इस पर वहाँ पुनः यह शंका की गई है कि परिकर्म में परमाणु को 'अप्रदेश' कहा गया है, पर यहाँ उसको एक प्रदेशवाला कहा जा रहा है। इस प्रकार इन दोनों सूत्रों में विरोध कैसे न होगा। इसके उत्तर में धवला में कहा गया है कि यह कुछ दोष नहीं है, क्योंकि परिकर्म में 'अप्रदेश' कहकर एक प्रदेश के अतिरिक्त द्वितीयादि प्रदेशों का प्रतिषेध किया गया है। कारण यह है कि 'न विद्यन्ते द्वितीयादयः प्रदेशा यस्मिन् सोऽप्रदेशः परमाणुः' इस निरुक्ति के अनुसार जो द्वितीय-आदि प्रदेशों से रहित होता है उसका नाम परमाणु है, यह परिकर्म में उसका अभि प्राय प्रकट किया गया है। यदि उसे प्रदेश से सर्वथा रहित माना जाय, तो खरविषाण के समान उसके अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । १. धवला, पु० १३, पृ० १५-१६ २. धवला, पु० १३, पृ० २६२-६३ ३. धवला, पु० १३, पृ० २६६ ४. धवला, पु० १४, पृ० ५४-५५; आगे यहाँ पृ० ३७४-७५ पर भी परिकर्म का अन्य उल्लेख द्रष्टव्य है। ५६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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