SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 647
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के प्रविभागप्रतिच्छेदों में भाग देने पर निरग्र होकर सिद्ध होता है, यह कैसे जाना जाता है । इसका समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि जघन्य स्पर्धक और जघन्य योगस्थान इनके अविभागप्रतिच्छेदों में चूंकि कृतयुग्मता' देखी जाती है, इसीसे जाना जाता है जघन्य स्पर्धक के अविभागप्रतिच्छेदों का जघन्य योगस्थान के अविभागप्रतिच्छेदों में भाग देने पर निरग्र होकर सिद्ध होता है । उस कृतयुग्मता का ज्ञान अल्पबहुत्वदण्डक से होता है, यह कहते हुए आगे धवला में उस अल्पबहुत्व को प्रस्तुत किया गया है । और अन्त में कहा गया है कि ये योगाविभागप्रतिच्छेद परिकर्म में वर्ग समुत्थित कहे गये हैं । इन योगाविभाग प्रतिच्छेदों को पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र योगगुणकार से अपवर्तित करने पर जघन्य योगस्थान के अविभाग-प्रतिच्छेद होते हैं । वे भी कृतयुग्म हैं । 2 (१३) वेदनाभावविधान अनुयोगद्वार में संख्यात भागवृद्धि पूछने पर सूत्रकार ने कहा है कि वह एक कम जघन्य असंख्यात की -सूत्र ४, २, ७,२०७-८ इसकी व्याख्या करते हुए उस प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गई है कि सूत्र में सीधे 'उत्कृष्ट संख्यात न कहकर एक कम जघन्य असंख्यात' ऐसा क्यों कहा गया है। इससे सूत्र में जो लाघव रहना चाहिए, वह नहीं रहा । प्रमाण के साथ संख्यात इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि उत्कृष्ट संख्यात के भागवृद्धि के प्रमाण की प्ररूपणा के लिए सूत्र में वैसा कहा गया है। यदि कहा जाय कि उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण तो परिकर्म से अवगत है तो ऐसा कहना योग्य नहीं है, क्योंकि परिकर्म के सूत्ररूपता नहीं है । अथवा आचार्य के अनुग्रह से पदरूप से निकले हुए उस सबके इस से पृथक होने का विरोध है । इसलिए उससे उत्कृष्ट संख्यात का प्रमाण सिद्ध नहीं होता है । (१४) वर्गणा खण्ड के अन्तर्गत 'स्पर्श' अनुयोगद्वार में देशस्पर्श के प्रसंग में शंकाकार ने यह अभिप्राय प्रकट किया है कि यह देशस्पर्श स्कन्ध के अवयवों में ही होता है, परमाणु पुद्गलों के नहीं होता, क्योंकि वे अवयवों से रहित हैं । इस अभिप्राय को असंगत बतलाते हुए धवला में कहा गया है कि परमाणुओं की निरवयवता असिद्ध है । इस पर शंकाकार ने कहा है कि परमाणुओं की निरवयवता असिद्ध नहीं है, क्योंकि "अपदेसं शेव इंदिए गेज्सं" अर्थात् परमाणु प्रदेशों से रहित होता हुआ इन्द्रिय से ग्रहण करने योग्य नहीं है, यह कहकर परिकर्म में उसकी निरवयवता को प्रकट किया गया है। I १. जिस संख्या में ४ का भाग देने पर शेष कुछ न रहे, उसे कृतयुग्म कहा जाता है । जैसे१६ (१६ ÷ ४= ४) | देखिये पु० १०, पृ० २२-२३ २. धवला, पु० १०, पृ० ४८२-८३ ३. धवला, पु० १२, पृ० १५४ ४. अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंतं णेव इंदिए गेज्झं । अविभाग जं दव्वं परमाणुं तं वियाणाहि ।। किस वृद्धि से होती है, यह वृद्धि से होती है । अंतादि-मज्झहीणं अपदेसं इंदिएहि ण जं दव्वं अविभत्तं तं परमाणु कहति जिणा ॥ Jain Education International - नि० सा० २६ (स० सि० २ २५ में उद्धृत ) गेज्झं । ति० प० १-६८ For Private & Personal Use Only ग्रन्थोलेख / ५६३ www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy