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सकता है, क्योंकि वैसा होने पर सभी सम्यग्दृष्टियों के उसके बन्ध का प्रसंग प्राप्त होता है । समाधान में धवलाकार ने कहा है कि शुद्ध नय के अभिप्राय से केवल तीन मूढताओं और आठ मलों से रहित होने पर ही दर्शनविशुद्धता नहीं होती, किन्तु उन गुणों के द्वारा अपने स्वरूप को पाकर स्थित सम्यग्दृष्टि साधुओं के लिए प्रासुक-परित्याग, साधु-समाधि का संधारण, उनकी वैयावृत्ति, अरहन्तभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, प्रवचनवत्सलता, प्रवचनविषयक प्रभावना और निरन्तर ज्ञानोपयोग में युक्तता – इनमें प्रवृत्त कराने का नाम दर्शनविशुद्धता है । इस एक ही दर्शनविशुद्धता से जीव तीर्थंकर कर्म को बाँध लेते हैं ।
इसी प्रकार से आगे विनयसम्पन्नता आदि प्रत्येक कारण में अन्य कारणों को गर्भित करके उनमें से पृथक्-पृथक् प्रत्येक को तीर्थकर कर्म के बन्ध का कारण माना गया है ।
अन्त में विकल्प के रूप में धवलाकार ने यह भी कहा है – अथवा सम्यग्दर्शन के होने पर शेष कारणों में से एक-दो आदि के संयोग से उसका बन्ध होता है, ऐसा कहना चाहिए (पु०८, पृ० ७६-६१ ) ।
इस प्रकार ओघप्ररूपणा के समाप्त होने पर सूत्रकार ने ओघ के समान आदेश की अपेक्षा उसी पद्धति से क्रमशः गति इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में विवक्षित कर्मों के बन्धक - अबन्धकों की भी प्ररूपणा की है ।
इन सूत्रों की व्याख्या में धवलाकार ने इन्हें देशामर्शक कहकर पूर्व पद्धति के अनुसार यथासम्भव तेईस प्रश्नों का विवेचन किया है।
इस प्रकार यहाँ 'बन्धस्वामित्व विचय' नाम का तीसरा खण्ड समाप्त हो जाता है ।
चतुर्थ खण्ड : वेदना
१. कृति अनुयोगद्वार
जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, षट्खण्डागम के चौथे खण्ड का नाम 'वेदना' है । इसमें कृति और वेदना नाम के दो अनुयोगद्वार हैं । उनमें कृति अनुयोगद्वार की अपेक्षा वेदना अनुयोगद्वार का अधिक विस्तार होने के कारण यह खण्ड 'वेदना' नाम से प्रसिद्ध हुआ । इसके अन्तर्गत प्रथम कृति अनुयोद्वार के प्रारम्भ में ग्रन्थकार द्वारा णमो जिणाणं' आदि ४४ सूत्रों में विस्तार से मंगल किया गया है। प्रथम सूत्र 'णमो जिणाणं' की व्याख्या में धवलाकार ने पूर्वसंचित कर्मों के विनाश को मंगल कहा है ।
यहाँ यह शंका उत्पन्न हुई है कि यदि पूर्वसंचित कर्मों का विनाश मंगल है तो जिन द्रव्यसूत्रों का या द्रव्यश्रुत का अर्थ जिन भगवान् के मुख से निकला है, जो विसंवाद से रहित होने के कारण केवलज्ञान के समान हैं, तथा जिनकी शब्द रचना वृषभसेन आदि गणधरों के द्वारा की गयी है उनके अध्ययन मनन में प्रवृत्त हुए सभी जीवों के प्रतिसमय असंख्यातगुणितश्रेणि से पूर्वसंचित कर्म की निर्जरा होती है; ऐसा विधान है । इस प्रकार पूर्वसंचित कर्म का विनाश जब श्रुत के अध्ययन मनन से सम्भव है तब तो यह मंगलसूत्र निष्फल ठहरता है और यदि उस मंगलसूत्र को सफल माना जाता है तो उस स्थिति में सूत्र का अध्ययन निष्फल सिद्ध होता है, क्योंकि उससे उत्पन्न होनेवाला कर्मक्षयरूप कार्य इस मंगलसूत्र से ही उपलब्ध हो जाता है ? इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह कोई दोष नहीं है । कारण यह है कि सूत्र
४५८ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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