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________________ में उसका उदय सम्भव है वहीं उसका बन्ध व्युच्छिन्न हो चुका है । बन्ध निरन्तर होता है, क्योंकि अपने बन्धकारण के होने पर कालक्षय से उसका बन्ध विश्रान्त नहीं होता । असंयतसम्यग्दृष्टि उसे दो गतियों से संयुक्त बाँधते हैं, क्योंकि नरकगति और तिर्यग्गति के बन्ध के साथ उसके बन्ध का विरोध है । ऊपर के गुणस्थानवर्ती जीव उसे एक मात्र देवगति से संयुक्त बाँधते हैं, क्योंकि मनुष्यगति में स्थित जीवों के देवगति को छोड़कर अन्य गतियों के साथ उसके बन्ध का विरोध है । उसके बन्ध के स्वामी तीन गतियों के असंयतसम्यग्दृष्टि हैं, क्योंकि तियंचगति में उसका बन्ध सम्भव नहीं है । इस प्रसंग में यहाँ यह शंका उठी है कि तिर्यंचगति में तीर्थकर प्रकृति के बन्ध का प्रारम्भ भले ही न हो, क्योंकि वहाँ जिनों का अभाव है । किन्तु जिन्होंने पूर्व में तिर्यंच आयु को बाँध लिया है वे यदि पीछे सम्यक्त्व आदि गुणों को प्राप्त करके उनके आश्रय से उस तीर्थकर प्रकृति हुए तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं तो उन्हें उसके बन्ध का स्वामित्व प्राप्त होता है । इस शंका के समाधान में धवलाकार कहते हैं कि वैसा सम्भव नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार नारक आयु और वायु को बाँध लेनेवाले जीवों के उसका बन्ध सम्भव है उस प्रकार तिर्यंच आयु और मनुष्यायु को बाँध लेनेवालों के उसका बन्ध सम्भव नहीं है । यह इसलिए कि जिस भव में तीर्थकर प्रकृति के बन्ध को प्रारम्भ किया गया है उससे तीसरे भव में उस प्रकृति के सत्त्व से युक्त जीवों के मोक्ष जाने का नियम है। पर तियंच व मनुष्यों में उत्पन्न हुए सम्यग्दृष्टियों का देवों में उत्पन्न होने के बिना मनुष्यों में उत्पन्न होना सम्भव नहीं है, जिससे कि उन्हें उक्त नियम के अनुसार तीसरे भव में मुक्ति प्राप्त हो सके। इसके विपरीत देवायु व नरकायु को बाँधकर देवों व नारकियों में उत्पन्न होनेवालों की तीसरे भव में मुक्ति हो सकती है । इससे सिद्ध है कि तीन गतियों के जीव ही उस तीर्थकर प्रकृति के बन्ध के स्वामी हैं । उसका बन्ध सादि व अध्रुव होता है, देखी जाती है (पु०८, पृ० ७३-७५) । क्योंकि उसके बन्धकारणों के सादिता व सान्तरता तीर्थकर प्रकृति के बन्धक कारण उसके बन्धक प्रत्ययों की प्ररूपणा स्वयं सूत्रकार द्वारा की गयी है । उसके बन्ध के कारण दर्शनविशुद्धता आदि सोलह हैं (सूत्र ३६-४१) । सूत्र ३६ की व्याख्या में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सूत्रों में शेष कर्मों के बन्ध के प्रत्ययों की प्ररूपणा न कर एक तीर्थकर प्रकृति के ही बन्ध प्रत्ययों की प्ररूपणा क्यों की जा रही है। इसका समाधान धवलाकार ने दो प्रकार से किया है। प्रथम तो उन्होंने यह कहा कि अन्य कर्मों के बन्धक प्रत्यय युक्ति के बल से जाने जाते हैं । जैसे - मिथ्यात्व व नपुंसकवेद आदि सोलह कर्मों के बन्ध का प्रत्यय मिथ्यात्व है, क्योंकि उसके उदय के बिना उनका बन्ध सम्भव नहीं है । निद्रानिद्रा व प्रचलाप्रचला आदि पच्चीस कर्मों के बन्धक कारण अनन्तानुबन्धी क्रोधादि हैं, क्योंकि उनके उदय के बिना उन पच्चीस कर्मों का बन्ध नहीं पाया जाता है। इसी प्रकार आगे अन्य कर्मों के भी यथासम्भव असंयम आदि प्रत्यय युक्ति के बल से स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने अन्त में कहा है कि इस भाँति उन सभी कर्मों के बन्धक प्रत्यय युक्ति से जाने जाते हैं । इसीलिए सूत्रों में उन-उन कर्मों के बन्ध-प्रत्ययों की प्ररूपणा नहीं की गयी है । परन्तु तीर्थकर प्रकृति के बन्ध का कारण क्या है, यह युक्ति के बल से नहीं जाना जाता है; यह इसलिए कि ४५६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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