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इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है जिन बारह अंगों का कथन अर्थरूप से तीर्थंकरों ने किया है और जिनकी ग्रन्थरूप से रवना गणधरों ने की है वे बारह अंग अविच्छिन्न आचार्यपरम्परा से निरन्तर चले आये हैं। किन्तु काल के प्रभाव से बुद्धि के उत्तरोत्तर हीन होते जाने पर पात्र के अभाव में वे ही अंगहीन रूप में प्राप्त हुए। इस परिस्थिति में अतिशयित बुद्धि के धारकों की उत्तरोत्तर होती हुई कमी को देखकर जो गृहीतार्थ आचार्य-परम्परा से प्राप्त विशिष्ट श्रुत के धारक-वचभीरु आचार्य तीर्थव्युच्छेद के भय से अतिशय भयभीत रहे हैं, उन आचार्यों ने उन्हीं बारह अंगों को पोथियों में चढ़ा दिया है-पुस्तकों के रूप में निबद्ध कर दिया है। इसलिए उनके सूत्ररूप न होने का विरोध है।
इस पर शंकाकार कहता है कि यदि ऐसा है तो इन वचनों के-सत्कर्मप्रकृतिप्राभूत और कषायप्राभूत के उपर्युक्त विरुद्ध कथनों के भी उक्त बारह अंगों के अवयवस्वरूप होने से सूत्ररूपता का प्रसंग प्राप्त होता है। इसके समाधान में धवलाकार ने स्पष्ट किया है कि उन दोनों कथनों में से एक के सूत्ररूपता हो सकती है, दोनों के नहीं; क्योंकि दोनों में परस्पर विरोध है।
__ इसी प्रसंग में आगे शंकाकार पूछता है कि उत्सूत्र-सूत्र के विरुद्ध लिखने वाले वज्रभीरु आचार्य-पाप से अतिशय भयभीत-कैसे हो सकते हैं। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि यह कुछ दोष नहीं है, क्योंकि उन दोनों में से किसी एक का संग्रह करने पर वज्रभीरुता नष्ट होती है। कारण यह है कि उन दोनों वचनों में कौन-सा सत्य है, इसे केवली व श्रुतकेवली ही जानते हैं, अन्य कोई नहीं जानता है; क्योंकि अन्य को उसका निर्णय करना शक्य नहीं है । इसलिए वर्तमान में वज्रभीरु आचार्यों को उन दोनों का ही संग्रह करना चाहिए, अन्यथा उनकी वज्रभीरुता नष्ट होती है।'
इस प्रकार उपर्युक्त दोनों प्रकार के कथनों में कौन सत्य है और कौन असत्य है, इसका निर्णय करना छद्मस्थ के लिए शक्य न होने से सूत्रासादना से भयभीत धवलाकार ने उन दोनों के ही संग्रह करने की प्रेरणा की है।
(२) यहीं पर आगे दूसरा भी एक इसी प्रकार का प्रसंग धवलाकार के समक्ष उपस्थित हुआ है । वहाँ कार्मणकाययोग किनके होता है, इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि वह विग्रहगति को प्राप्त हुए जीवों के और समुद्घातगत केवलियों के होता है ।
--सूत्र १, १, ६० इस प्रसंग में धवला में शंकाकार ने केवलिसमुद्घात सहेतुक है या अहेतुक, इन दो विकल्पों को उठाकर उन दोनों ही विकल्पों में उसकी असम्भावना प्रकट की है। शंकाकार के इस अभिमत का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि आचार्य यतिवृषभ के उपदेशानुसार क्षीणकषाय के अन्तिम समय में सब अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं रहती है, इसलिए सभी केवली समुद्घात करते हुए ही मुक्ति को प्राप्त होते हैं। किन्तु जिन आचार्यों के मतानुसार लोकपूरणसमुद्घातगत केवलियों की बीस संख्या का नियम है। उनके मतानुसार कितने ही
१. देखिए धवला, पु० १, पृ० २१७-२२ २. सजोगिकेवली दव्वपमाणेण केवडिया? संखेज्जा ।----सूत्र १,२,१२३ (पु० ३, पृ० ४०४)
इसकी टीका भी द्रष्टव्य है ।
७१०/ पट्खण्डागम-परिशीलन
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