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समुद्घात को करते हैं और कितने ही उसे नहीं भी करते हैं।
इसी प्रसंग में आगे अवसरप्राप्त कुछ शंका-समाधान के पश्चात् शंकाकार कहता है कि अन्य आचार्यों के द्वारा जिस अर्थ का व्याख्यान नहीं किया गया है, उसका कथन करते हुए आपको सूत्र के प्रतिकूल चलने वाले क्यों न समझा जाय। इसका समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि जो आचार्य वर्षपृथक्त्व प्रमाण अन्तर के प्रतिपादक सूत्र के' वशवर्ती हैं उन्हीं के द्वारा उसका विरोध सम्भव है।
आगे एक गाथासूत्र के आधार पर यह शंका की गयी है कि "छह मास आयु के शेष रह जाने पर जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, वे समुद्घातपूर्वक सिद्ध होते हैं, शेष के लिए उस समुद्घात के विषय में नियम नहीं है- उनमें कुछ उसे करते हैं और कुछ नहीं भी करते हैं" इस गाथा के उपदेश को क्यों नहीं ग्रहण किया जाता है। इसके समाधान में वहां कहा गया है कि विकल्परूपता में कोई कारण उपलब्ध नहीं होता। ____ यदि कहा जाय कि "जिनके नाम, गोत्र और वेदनीय कर्म आयु के समान होते हैं, वे समुद्घात को न करते हुए मुक्ति को प्राप्त होते हैं, इसके विपरीत दूसरे समुद्घातपूर्वक मुक्त होते हैं" यह आगमवचन ही उस विकल्परूपता का कारण है तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि सब जीवों में समान अनिवृत्तिकरण परिणामों के द्वारा घात को प्राप्त हुई स्थितियों के आयु के समान होने का विरोध है। इसके अतिरिक्त क्षीणकषाय के अन्तिम समय में तीन अघातिया कर्मों की जघन्य स्थिति भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही उपलब्ध होती है।
इस पर शंकाकार के द्वारा यह कहने पर कि आगम तर्क का गोचर नहीं होता है, धवलाकार ने कहा है कि उक्त दोनों गाथाओं की आगमरूपता निर्णीत नहीं है। और यदि उनके आगमरूप होने का निर्णय हो सकता है तो उन गाथाओं को ही ग्रहण किया जाय ।
इस प्रकार धवल.कार ने यहाँ प्रथम तो यतिवृषभाचार्य के उपदेश को प्रधानता देकर यह कहा है कि सभी केवली समुद्धातपूर्वक मुक्ति को प्राप्त करते हैं । तत्पश्चात् शंकाकार के द्वारा प्रस्तुत की गयी उन दो गाथाओं को लक्ष्य में रखकर यह भी उन्होंने कह दिया है कि यदि उन दोनों गाथाओं की आगमरूपता निर्णीत है तो उनको ही ग्रहण किया जाय।
__ ये दोनों गाथाएँ अभिप्राय में प्रायः 'भगवती आराधना' की २१०५-७ गाथाओं के समान हैं, शब्दसाम्य भी उनमें बहुत-कुछ है । विशेष चिन्तन
कार यतिवृषभाचार्य के उपदेश को प्रस्तुत करते हुए धवला में कहा गया है कि क्षीणकषाय
१. सजोगिकेवलीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ।
उक्कस्सेण वास पुधत्तं ।-सूत्र १,६,१६६-६७ व १७७ (पु० ५, पृ० ६१ व ६३)
(यहाँ मूल में पाठ कुछ अव्यवस्थित सा दिखता है ।) २. छम्मासाउवसेसे उप्पण्णं जस्स केवलं णाणं ।
स-समुग्घाओ सिज्झइ सेसा भज्जा समुग्घाए ॥-पु० १, पृ० ३०३ . ३. जेसिं आउसमाइं णामा-गोदाणि वेयणीयं च । ___ ते अकयसमुग्धाया वच्चंतियरे समुग्घाए॥-पु० १, पृ० ३०४ ४. देखिए धवला पु० १, पृ० ३०१-०४
वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति । ७११
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