SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 766
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के अन्तिम समय में अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं रहती, इससे सभी केवली समुद्पात को करते हुए मुक्ति को प्राप्त होते हैं। इसे हमने कषायप्राभूत-चूणि में खोजने का प्रयत्न किया है, पर उनका वह भत उस प्रकार के स्पष्ट शब्दों में तो उपलब्ध नहीं हुआ, फिर भी प्रसंग के अनुसार जो कुछ वहाँ विवेचन किया गया है उससे यतिवृषभाचार्य का वह अभिप्राय प्रायः स्पष्ट हो जाता है। वहाँ चारित्रमोह की क्षपणा के प्रसंग में यह कहा गया है जब वह अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक होता है, तब उसके नाम व गोत्र कर्मों का स्थितिबन्ध आठ मुहूर्त और वेदनीय का बारह मुहूर्त प्रमाण होता है। नाम, गोत्र और वेदनीय का स्थितिसत्कर्म असंख्यातवर्ष रहता है । इस क्रम से चलकर वह अनन्तर समय में प्रथम समयवर्ती क्षीणकषाय हो जाता है। तब वह स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का अबन्धक हो जाता है।' ___आगे 'पश्चिमस्कन्ध' को प्रारम्भ करते हुए यह कहा गया है कि आयु के अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर आवजितकरण को करता है और तत्पश्चात् केवलीसमुद्घात को करता है। इसी प्रसंग में वहां आगे कहा गया है कि लोकपूरणसमुद्घात के करने पर तीन अघातिया कर्मों की स्थिति को आयु से संख्यातगुणी स्थापित करता है। यहाँ 'पश्चिमस्कन्ध' में जो यह कहा गया है कि आयु के अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर आवजितकरण के पश्चात् केवलीसमुद्धात को करता है, उसमें केवलिसमुद्घात के न करने का कोई विकल्प नहीं प्रकट किया गया है । इससे यही प्रतीत होता है कि सभी केवली अनिवार्य रूप से उस केवलिसमुद्घात को किया करते हैं। ___ आगे वहां यह भी स्पष्ट किया गया है कि चौथे समय में किये जानेवाले लोकपूरण समद्घात के सम्पन्न होने पर नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन अघातिया कर्मों की स्थिति को आयु से संख्यातगुणी स्थापित करता है। इन तीन अघातिया कर्मों की स्थिति योग का निरोध हो जाने पर आयु के समान होती है । तत्पश्चात् वह शैलेश्य अवस्था को प्राप्त कर अयोगिकेवली हो जाता है। यहां यह कहा गया है कि लोकपूरण समुद्घात के होने पर तीन अधातिया कर्मों की स्थिति को आयु से संख्यातगुणी स्थापित करता है, इससे स्पष्ट है कि पूर्व में उन अघातिया कर्मों की स्थिति समान नहीं होती है। इस विवेचन से यही निश्चित प्रतीत होता है कि यतिवृषभाचार्य को सभी केवलियों के १. ताधे चरिमसमयसुहुमसांपराइयो जादो ताधे णामा-गोदाणं द्विदिबंधो अट्ठमुहुत्ता । वेदणी यस्स ट्ठिदिबंधो वारस मुहुत्ता।xxxणामा-गोद-वेदणीयाणं ट्ठिदिसंतकम्ममसंखेज्जाणि वस्साणि ।-क० पा० सुत्त, पृ० ८६४, चूणि १५५७-५८ व १५६० २. पच्छिमक्खंधेत्ति अणियोगद्दारे इमा मग्गणा । अंतोमुहुत्ते आउगे सेसे तदो आवज्जिदकरणे कदे तदो केवलिसमुग्घादं करोदि Ixxx तदो चउत्थसमये लोग पूरेदि । लोगे पुण्ण एक्का वग्गणा जोगस्स त्ति समजोगो त्ति णायव्वो। लोगे पुण्णे अंतोमुहुत्तं द्विदि ठवेदि । संखेज्जगुणमाउआदो।-क०पा० सुत्त, पृ० ६००-०२, चूणि १-२ व ११-१४ ।। ३. जोगम्हि णिरुद्धम्हि आउअसमाणि कम्माणि होति । तदो अंतोमुहुत्तं सेले सिं य पडि. वज्जदि।--क०पा० सुत्त, पृ० ६०५, चूणि ४८-४६ ७१२/ षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy