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________________ गतियां यदि केवल उदय में आती हैं तो नरकगति के उदय से नारकी, तिथंचगति के उदय से तिर्यच, मनुष्यगति के उदय से मनुष्य और देवगति के उदय से देव होता है; यह कहना योग्य है। किन्तु अन्य प्रकृतियां भी वहाँ उदय में आती हैं, क्योंकि उनके बिना नरकगति आदि नामकर्मों का उदय नहीं पाया जाता है। इसके स्पष्टीकरण के साथ धवला में आगे नारकियों के २१,२५, २७,२८ व २६ इन पाँच उदयस्थानों को; तियंचगति में २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६,३० व ३१ इन नौ उदयस्थानों को; मनुष्यों के सामान्य से २०,२१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३१,६ व ८ इन ग्यारह उदयस्थानों को; और देवगति में २१,२५,२७,२८ व २६ इन पांच उदयस्थानों को दिखलाया है । यथासम्भव भंगों को भी वहाँ दिखलाया गया है। यथा-- नारकियों के सम्भव उपर्युक्त पाँच स्थानों में से इक्कीस प्रकृतिरूप उदयस्थान के प्रसंग में धवला में कहा गया है कि नरकगति, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, त्रस, बादर, पर्याप्त, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशकीर्ति और निर्माण इन २१ प्रकृतियों को लेकर प्रथम स्थान होता है। यहाँ भंग एक ही रहता है। वह विग्रहगति में वर्तमान नारकी के सम्भव है। उपर्यक्त २१ प्रकृतियों में से एक आनुपूर्वी को कम करके उनमें वैक्रियिक शरीर, हुण्डसंस्थान, वैक्रियिक शरीरांगोपांग, उपघात और प्रत्येकशरीर इन पाँच प्रकृतियों के मिला देने पर २५ प्रकृतियों का दूसरा स्थान होता है। वह शरीर को ग्रहण कर लेने वाले नारकी के सम्भव है। उसका काल शरीर ग्रहण करने के प्रथम समय से लेकर शरीरपर्याप्ति के अपूर्ण रहने के अन्तिम समय तक अन्तर्महूर्त है। यहाँ पूर्वोक्त भंग के साथ दो भंग हैं। उक्त २५ प्रकृतियों में परघात और अप्रशस्त विहायोगति इन दो के मिला देने पर २७ प्रकृतियों का तीसरा स्थान होता है। वह शरीरपर्याप्ति के पूर्ण होने के प्रथम समय से लेकर आनपानपर्याप्ति के अपूर्ण रहने के अन्तिम समय तक रहता है । सब भंग यहाँ ३ होते हैं। पूर्वोक्त २७ प्रकृतियों में उच्छ्वास को मिला देने पर २८ प्रकृतियों का चौथा स्थान होता है। वह आनप्राणपर्याप्ति से पर्याप्त हो जाने के प्रथम समय से लेकर भाषापर्याप्ति के अपूर्ण रहने के अन्तिम समय तक होता है। यहाँ सब भंग ४ होते हैं। उन २८ प्रकृतियों में एक दुःस्वर के मिला देने पर २६ प्रकृतियों का पांचवां स्थान होता है। वह भाषापर्याप्ति से पर्याप्त होने के प्रथम समय से लेकर आयुस्थिति के अन्तिम समय तक रहता है। यहाँ सब भंग ५ होते हैं। इसी प्रकार से आगे यथासम्भव तिर्यचगति आदि में भी स्थानों को प्रदर्शित किया गया है। विशेषता यह है कि तिरंच एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रियादि भेदों में विभक्त हैं। इससे उनमें आतपउद्योत व यशकीति-अयशकीर्ति आदि कुछ प्रकृतियों के उदय की विशेषता के कारण भंग अधिक सम्भव हैं। इसी प्रकार की विशेषता मनुष्यों में भी रही है।' इन भंगों की प्रक्रिया के परिज्ञापनार्थ धवला में 'एत्थ भंगविसयणिच्छयमुप्प.यणभेदाओ गाहाओ वत्तवाओ' ऐसी सूचना करके ७ गाथाओं को उद्धृत किया गया है (पु० ७, पृ० ४४४६)। ये गाथाएँ उसी क्रम से मूलाचार के 'शीलगुणाधिकार' १६-२५ गाथांवों में उपलब्ध १. इस सबके लिए धवला पु० ७, पृ० ३२-६० देखना चाहिए। ४५० / षट्समागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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