SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकार से परिभ्रमण करता हुआ जब वह अन्त में सातवीं पृथिवी के नारकियों में तेंतीस सागरोपम प्रमाण आय को लेकर उत्पन्न होता है तब उसके आयु के अन्तिम समय में उन ज्ञानावरणीयरूप कर्मस्कन्धों का सर्वाधिक संचय होता है, यह यहाँ अभिप्राय प्रकट किया गया है। ___उक्त गणितकर्माशिक जीव के ज्ञानावरणीय कर्मद्रव्य का कितना संचय होता है तथा वह किस क्रम से उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है, इस सबकी प्ररूपणा यहाँ धवलाकार ने गणित प्रक्रिया के आधार से बहुत विस्तार से की है।' आगे ज्ञानावरणीय वेदना द्रव्य से अनत्कष्ट किसके होती है, इस विषय में यह कह दिया गया है कि उपर्युक्त उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय द्रव्यवेदना से भिन्न अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना इसका स्पष्टीकरण धवला में पर्याप्त रूप में किया गया है।' इस प्रकार ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामी की प्ररूपणा करके तत्पश्चात् अन्य छह कर्मवेदनाओं के विषय में संक्षेप से यह कह दिया है कि जिस प्रकार ज्ञानावरणीय के उत्कष्ट-अनत्कष्ट द्रव्य की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार से आय कर्म को छोड़ शेष छह कर्मों के उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट द्रव्य की प्ररूपणा करना चाहिए । (३४)। ___आयुकर्म के विषय में जो विशेषता रही है उसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाला जो जीव परभव सम्बन्धी पूर्वकोटि प्रमाण आयु को बाँधता हुआ उसे जलचर जीवों में दीर्घ आयुबन्ध काल से तत्प्रायोग्य संक्लेश के साथ उत्कृष्ट योग में बाँधता है, जो योगयवमध्य के ऊपर अन्तर्महर्त काल रहा है, अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तर में प्रावली के असंख्यातवें भाग मात्र काल तक रहा है, इस क्रम से काल को प्राप्त हुआ पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले जलचर जीवों में उत्पन्न हुआ है, अन्तर्मुहुर्त में सबसे अल्प समय में सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ है, अन्तर्मुहूर्तकाल से फिर से भी जलचर जीवों में पूर्वकोटि प्रमाण आयु को बाँधता है, उस आयु को. जो दीर्घ आयुबन्ध काल में तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योग के द्वारा बांधता है, योगयवमध्य के ऊपर अन्तर्मुहूर्तकाल रहता है, अन्तिम गुणहानिस्थानान्तर में आवली के असंख्यातवें भाग काल तक रहा है, बहुत-बहुत बार साताबन्ध के योग्यकाल से युक्त होता है, तथा जो अनन्तर समय में परभविक आयु के बन्ध को समाप्त करने वाला है, उसके आयुकर्मवेदना द्रव्य से उत्कृष्ट होती है (३५-४६)। इन सब विशेषताओं का स्पष्टीकरण धवलाकार ने विस्तार से किया है। उसके सम्बन्ध में आगे 'धवलागत विषय परिचय' में विशेष विचार किया जानेवाला है। ___ आगे आयुवेदना द्रव्य से अनुत्कृष्ट किसके होती है, इस विषय में यह कह दिया है कि उपर्युक्त उस्कृष्ट द्रव्यवेदना से भिन्न अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना जानना चाहिए (४७)। ___ इस प्रकार उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना के प्रसंग को समाप्त कर आगे द्रव्य से जघन्य वेदना की प्ररूपणा करते हुए स्वामित्व की अपेक्षा जघन्य पद में ज्ञानावरणीय वेदनाद्रव्य से जधन्य किसके होती है, इस प्रश्न पर विचार करते हुए कहा गया है कि जो जीव पल्योपम १. धवला पु० १०, पृ० १०६-२१० २. वही, पृ० २१०-२४ मूलप्रन्थगत विषय का परिचय / ८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy