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________________ निषेध करके उदय को प्राप्त एक वेदनीयकर्म द्रव्य को वेदना कहा गया है । शब्द नय की अपेक्षा 'वेदना' ही वेदना है (४)। इस नय की अपेक्षा वेदनीय द्रव्यकर्म के उदय से उत्पन्न होनेवाले सुख-दुःख अथवा आठ कर्मों के उदय से उत्पन्न जीव का परिणाम वेदना है, क्योंकि उस शब्द-नय का विषय द्रव्य नहीं है। इस अनुयोगद्वार में ४ ही सूत्र हैं। ४. वेदनाद्रव्यविधान—यह 'वेदना' अनुयोगद्वार का चौथा अवान्तर अनुयोगद्वार है। इसमें उपर्युक्त वेदनारूप द्रव्य के विधानस्वरूप से उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य पदों की प्ररूपणा की गई है। यहाँ प्रारम्भ में 'वेदनाद्रव्यविधान' का स्मरण कराते हुए उसकी प्ररूपणा में इन तीन अनुयोगद्वारों को ज्ञातव्य कहा गया है—पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व। इनमें से पदमीमांसा में ज्ञानावरणीय वेदना क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुकृष्ट है, क्या जघन्य है और क्या अजघन्य है। इस प्रश्न को उठाते हुए उसके उत्तर में कहा गया है कि उकष्ट भी है, अनुत्कृष्ट भी है, जघन्य भी है और अजघन्य भी है। आगे संक्षेप में यह सूचना कर दी गई है कि इस ज्ञानावरणीय के समान अन्य सात कर्मों के भी इन पदों की प्ररूपणा करना चाहिए यहाँ धवलाकार ने पूर्वोक्त पृच्छासूत्र (२) और उत्तरसूत्र (३) को देशामर्शक कहकर उनके द्वारा सूचित उक्त उत्कृष्ठ आदि चार पदों के साथ अन्य सादि-अनादि आदि नौ पदों विषयक पच्छाओं और उनके उत्तर को प्ररूपणीय कहा है। इस प्रकार उन दो सूत्रों के अन्तर्गत तेरह-तेरह अन्य सूत्रों को समझना चाहिए। उस सबके विषय में विशेष विचार 'धवला' के प्रसंग में किया जायगा। दूसरे स्वामित्व अनुयोगद्वार में स्वामित्व के ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-जघन्य पदविषयक और उत्कृष्ट पदविषयक । इनमें उत्कृष्ट पद के आश्रय से पूछा गया है कि स्वामित्व की अपेक्षा उत्कृष्ट पद में ज्ञानावरणीय वेदना द्रव्य से उत्कृष्ट किसके होती है (५-६)। इसके उत्तर में यह कहना अभिप्रेत है कि वह ज्ञानावरणीय वेदना द्रव्य से उत्कृष्ट गुणितकौशिक के होती है। इसी अभिप्राय को हृदयंगम करते हुए यहाँ उस गुणितकर्माशिक के ये लक्षण प्रकट किये गये हैं-जो साधिक दो हजार सागरोपम से हीन कर्मस्थितिकाल तक बादर पृथिवीकायिक जीवों में रहा है, वहाँ परिभ्रमण करते हुए जिसके पर्याप्तभव बहुत और अपर्याप्तभव थोड़े होते हैं, पर्याप्तकाल बहुत व अपर्याप्तकाल थोड़े होते हैं (७-६), इत्यादि अन्य कुछ विशेषताओं को प्रकट करते हुए (१०-२०) आगे कहा गया है कि इस प्रकार से परिभ्रमण करके जो अन्तिम भवग्रहण में नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ है (२१), आगे इस नारकी की कुछ विशेषताओं को दिखलाते हुए (२२-२६) कहा गया है कि वहाँ रहते हुए जो द्विचरम और चरम समय में उत्कृष्ट संक्लेश को प्राप्त हुआ है, चरम और द्विचरम समय में उत्कृष्ट योग को प्राप्त हुआ है, इस प्रकार जो चरमसमयवर्ती तद्भवस्थ हुआ है उस चरमसमयवर्ती तद्भवस्थ नारकी के ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य से उत्कृष्ट होती है (३०-३२)। इस प्रकार ये सब विशेषताएँ ऐसी हैं कि उनके आश्रय से ज्ञानावरणीयरूप कर्मपुद्गलस्कन्धों का उस गुणितकौशिक जीव के उत्तरोत्तर अधिकाधिक संचय होता जाता है। इस ८०/षखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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