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________________ का जो परस्पर में स्पर्श होता है उसे स्पर्श-स्पर्श समझना चाहिए। उसके एक दो तीन आदि के संयोग से २५५ भंग होते हैं। ___ कर्मस्पर्श-कर्मों का कर्मों के साथ जो स्पर्श होता है उसका नाम कर्मस्पर्श है। वह ज्ञानावरणीयस्पर्श व दर्शनावरणीयस्पर्श आदि के भेद से आठ प्रकार का है (२५-२६)। बन्धस्पर्श-बन्धस्वरूप प्रौदारिक आदि शरीरों के बन्ध का नाम बन्धस्पर्श है। वह प्रौदारिक शरीर बन्धस्पर्श आदि के भेद से पाँच प्रकार का है (२७-२८)। यहाँ धवलाकार ने 'बध्नातीति बन्धः, औदारिकशरीरमेव बन्धः औदारिकशरीरबन्धः' ऐसी. निरुक्ति करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया है कि बांधने वाले औदारिक शरीर आदि ही बन्ध हैं, अतः उनके स्पर्श को बन्धस्पर्श समझना चाहिए। इस प्रकार शरीर के भेद से बन्धस्पर्श भी पांच प्रकार का है। आगे उन्होंने इस बन्धस्पर्श के भंगों को भी स्पष्ट किया है। यथा १. प्रौदारिकनोकर्मप्रदेश तिर्यचों व मनुष्यों में औदारिक शरीरनोकर्मप्रदेशों से स्पृष्ट होते हैं। २. औदारिक नोकर्मप्रदेश तियंचों व मनुष्यों में वैक्रियिक नोकर्मप्रदेशों के साथ स्पर्श को प्राप्त हैं। ३. औदारिक शरीर नोकर्मप्रदेश प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक-शरीर-नोकर्मप्रदेशों के साथ स्पर्श को प्राप्त होते हैं। इस पद्धति से प्रोदारिक बन्धस्पर्श के ५, वैक्रियिक शरीरबन्धस्पर्श के ४, आहारकशरीरबन्ध के ४, तैजसशरीरबन्ध के ५, और कार्मणशरीर बन्ध के ५भंगों का उल्लेख किया गया है। भव्यस्पर्श-विष, कूट व यंत्र आदि, उनके निर्माता तथा उनको इच्छित स्थान में स्थापित करनेवाले; ये सब भव्यस्पर्श के अन्तर्गत हैं । कारण यह कि वे वर्तमान में तो पात आदि के लिए इच्छित वस्तु का स्पर्श नहीं करते हैं, किन्तु भविष्य में उनमें उसकी योग्यता है, अत: कारण में कार्य का उपचार करके इन सबको भव्यस्पर्श कहा गया है (२६-३०)। भावस्पर्श-जो जीव स्पर्शप्राभूत का ज्ञाता होकर वर्तमान में तद्विषयक उपयोग से भी सहित है उसका नाम भावस्पर्श है (३१-३२) । इन सब स्पर्शों में यहाँ किस स्पर्श का प्रसंग है, यह पूछे जाने पर उत्तर में कहा गया है कि यहाँ कर्मस्पर्श प्रसंग-प्राप्त है (३३)। __ इस अनुयोगद्वार में सब सूत्र ३३ हैं। यहाँ सूत्र में 'कर्मस्पर्श' को प्रसंग-प्रान्त कहा गया है। पर धवलाकार ने इस सूत्र की व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट किया है कि यह खण्डग्रन्थ अध्यात्मविषयक है, इसी अपेक्षा से सूत्रकार द्वारा यहाँ कर्मस्पर्श को प्रकृत कहा गया है । किन्तु महाकर्मप्रकृतिप्रामृत में द्रव्यस्पर्श, सर्वस्पर्श और कर्मस्पर्श प्रकृत हैं, क्योंकि दिगन्तरशुद्धि में द्रव्यस्पर्श की प्ररूपणा के बिना वहाँ स्पर्श अनुयोगद्वार का महत्त्व घटित नहीं होता। प्रस्तुत अनुयोगद्वार को प्रारम्भ करते हुए सूत्रकार द्वारा उसकी प्ररूपणा में १६ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है । यहाँ धवला में यह शंका उठायी गई है कि यदि यहाँ कर्मस्पर्श प्रकृत है तो ग्रन्थकर्ता भूतबलि भगवान् ने उस कर्मस्पर्श की प्ररूपणा यहाँ कर्मस्पर्श-नय विभाषणता आदि शेष पन्द्रह अनुयोगद्वारों के प्राश्रय से क्यों नहीं की है। इसका समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि कर्मस्कन्ध का नाम स्पर्श है, अतः उसकी प्ररूपणा करने पर वेदना अनुयोगद्वार में प्ररूपित अर्थ (कर्मस्कन्ध) से कुछ विशेषता नहीं रहती, इसी से १०६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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