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________________ एक आकाशप्रदेश की अपेक्षा अनेक आकाशप्रदेशों का क्षेत्र अनन्तर क्षेत्र होता है। इस प्रकार दो आकाशप्रदेशों में स्थित द्रव्यों का जो अन्य दो आकाशप्रदेशों में स्थित द्रव्यों के साथ स्पर्श होता है, वह अनन्तरक्षेत्रस्पर्श कहलाता है। इसी प्रकार दो आकाशप्रदेश स्थित द्रव्यों का जो तीन प्रदेशों में स्थित, चार प्रदेशों में स्थित, पांच प्रदेशों में स्थित, इत्यादि क्रम से महास्कन्ध पर्यन्त आकाशप्रदेशों में स्थित अन्य द्रव्यों के साथ जो स्पर्श होता है उस सबको अनन्तरक्षेत्रस्पर्श कहा जाता है। यह द्विसंयोगी भंगों की' प्ररूपणा हुई। इसी प्रकार त्रिसंयोगी. चतःसंयोगी आदि अन्य भंगों को भी समझना चाहिए। यहाँ एकक्षेत्रस्पर्शन और अनन्तरक्षेत्रस्पर्शन में यह विशेषता प्रकट की गई है कि समान अवगाहनावाले स्कन्धों का जो स्पर्श होता है उसे एकक्षेत्रस्पर्श और असमान अवगाहनावाले स्कन्धों का जो स्पर्श होता है उसे अनन्तरक्षेत्रस्पर्श कहा जाता है। देश-स्पर्श-जो द्रव्य का एक देश (अवयव) अन्य द्रव्य के देश के साथ स्पर्श को प्राप्त होता है, उसका नाम देशस्पर्श है (१७-१८)। यह देश-स्पर्श स्कन्ध के अवयवों का ही होता है, परमाणु पुद्गलों का नहीं; इस अभिप्राय का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि ऐसा मानना ठीक नहीं है। कारण यह कि वैसा कहना तब संगत हो सकता है जब कि परमाणु निरवयव हों। परन्तु परमाणुओं की निरवयवता सिद्ध नहीं है। परिकर्म में जो परमाणु को 'अप्रदेश' कहा गया है उसके अभिप्रायानुसार प्रदेश का अर्थ परमाणु है, वह जिस परमाणु में समवेतस्वरूप से नहीं रहता है वह परमाणु अप्रदेशी है। इससे उसकी निरवयवता सिद्ध नहीं होती । इसके विपरीत परमाणु की सावयवता के विना चूंकि स्कन्ध की उत्पत्ति बनती नहीं है, इससे उसकी सावयवता ही सिद्ध होती है । त्वकस्पर्श-जो द्रव्य त्वक् और नोत्वक् को स्पर्श करता है उस सबको त्वक्स्पर्श कहा जाता है । त्वक् से अभिप्राय वृक्षों आदि के छाल का और नोत्वक से अभिप्राय अदरख, प्याज व हल्दी आदि के छिलके का रहा है (१९-२०)। सर्वस्पर्श-जो द्रव्य सबको सर्वात्मस्वरूप से स्पर्श करता है उसका नाम सर्वस्पर्श है । जैसे-परमाणु द्रव्य । इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार परमाणु द्रव्य सब ही अन्य परमाणु को स्पर्श करता हुआ उसे सर्वात्मस्वरूप से स्पर्श करता है उसी प्रकार का अन्य भी जो स्पर्श होता है उसे सर्वस्पर्श जानना चाहिए (२१-२२)। इसका विशेष स्पष्टीकरण प्रासंगिक शंका-समाधानपूर्वक धवला में किया गया है । तद. नुसार आगे इस पर विचार किया जायगा। __ स्पर्श-स्पर्श-कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण के भेद से स्पर्श आठ प्रकार का है । उस सबको सूत्रकार ने स्पर्श-स्पर्श कहा है (२३-२४)। ___ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि 'स्पृश्यत इति स्पर्शः' इस निरुक्ति के अनुसार 'स्पर्श-स्पर्श' में एक स्पर्श शब्द का अर्थ कर्कशादि रूप आठ प्रकार का स्पर्श है तथा दूसरे स्पर्श का अर्थ 'स्पश्यति अनेन इति स्पर्शः' इस निरुक्ति के अनुसार त्वक् (स्पर्शन) इन्द्रिय है, क्योंकि उसके द्वारा कर्कशादि का स्पर्श किया जाता है। इस प्रकार स्पर्शन इन्द्रिय के द्वारा जो कर्कश आदि आठ प्रकार के स्पर्श का स्पर्श किया जाता है उसे स्पर्श-स्पर्श जानना चाहिए। स्पर्श के आठ भेद होने से स्पर्श-स्पर्श भी आठ प्रकार का है। प्रकारान्तर से वहाँ यह भी कहा गया है कि कर्कशादि आठ प्रकार के स्पर्श मूलग्रन्थगत विषय का परिचय / १०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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