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नामक छठे खण्ड की रचना की है। '
इससे ऐसा प्रतीत होता है कि बप्पदेव गुरु और आचार्य वीरसेन के समक्ष कोई व्याख्याप्रज्ञप्ति ग्रन्थ रहा है, जिसे षट्खण्डागम में छठे खण्ड के रूप में जोड़ा गया है और महाबन्ध को उससे अलग किया गया है । उसी व्याख्याप्रज्ञप्ति के आधार से आचार्य वीरसेन ने संक्षेप में निबन्धन आदि अठारह अनुयोगद्वार में विभक्त 'सत्कर्म' को लिखा व उसे षट्खण्डागम का छठा खण्ड बनाया । वह सत्कर्म प्रस्तुत षट्खण्डागम की १६ जिल्दों में से १५ व १६वीं दो जिल्दों में प्रकाशित है । इस प्रकार षट्खण्डागम को इन १६ जिल्दों में समाप्त समझना चाहिए । छठा खण्ड जो महाबन्ध था वह अलग पड़ गया है ।
इन्द्रनन्दिश्रुतावतार के अनुसार वीरसेनाचार्य ने जिस व्याख्याप्रज्ञप्ति के आश्रय से 'सत्कर्म' की रचना की है तथा जिस व्याख्याप्रज्ञप्ति का उल्लेख पीछे आयु के प्रसंग में धवला में किया गया हैं, वे दोनों भिन्न प्रतीत होते हैं । कारण कि आयु के प्रसंग में उल्लखित उस व्याख्याप्रज्ञप्ति को स्वयं धवलाकार ने ही आचार्यभेद से भिन्न घोषित किया है ।
श्रुतावतार में निर्दिष्ट बप्पदेवगुरु विरचित वह साठ हजार ग्रन्थ प्रमाण व्याख्या भी उपलब्ध नहीं है और न ही कहीं और उसका उल्लेख भी देखा गया है ।
६. आ० वीरसेन विरचित धवला टीका
इन्द्रनन्दी ने आगे अपने श्रुतावतार में प्रस्तुत धवला टीका के सम्बन्ध में यह कहा है कि बप्पदेव विरचित उस व्याख्या के पश्चात् कुछ काल के बीतने पर सिद्धान्त के तत्त्वज्ञ एलाचार्य हुए। उनका निवास चित्रकूटपुर रहा है। उनके समीप में वीरसेनगुरु ने समस्त सिद्धान्त का अध्ययन करके ऊपर के आठ अधिकारों को लिखा । तत्पश्चात् वीरसेन गुरु की अनुज्ञा प्राप्त करके वे चित्रकूटपुर से आकर वाटग्राम में आनतेन्द्रकृत जिनालय में स्थित हो गये । वहाँ उन्होंने पूर्व छह खण्डों में व्याख्याप्रज्ञप्ति को प्राप्त कर उसमें उपरितम बन्धन आदि अठारह अधिकारों से 'सत्कर्म' नामक छठे खण्ड को करके संक्षिप्त किया । इस प्रकार उन्होंने छह खण्डों की बहत्तर हजार ग्रन्थ प्रमाण प्राकृत संस्कृत मिश्रित धवला नाम की टीका लिखी । साथ ही, उन्होंने कषायप्राभृत की चार विभक्तियों पर बीस हजार प्रमाण समीचीन ग्रन्थ रचना से संयुक्त जयधवला टीका भी लिखी । इस बीच वे स्वर्गवासी हो गये । तब जयसेन ( जिनसेन) गुरु नामक उनके शिष्य ने उसके शेष भाग को चालीस हजार ग्रन्थ प्रमाण में समाप्त किया । इस प्रकार जयधवला टीका ग्रन्थ-प्रमाण में साठ हजार हुई ।
१. इ० श्रुतावतार १८०-८१
२. वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में 'एलाचार्य का वत्स' कहकर स्वयं भी गुरु के रूप में एलाचार्य का उल्लेख किया है | धवला पु० ६, पृ० १२६
३. काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासी ।
श्रीमाने लाचार्यो बभूव सिद्धान्ततत्त्वज्ञः || १७७ ।। तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः । उपरितमनिबन्धनाद्यधिकारानष्ट (?) च लिलेख ॥। १७८ ॥
३४४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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