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________________ ष० ख० में पांचवें वर्गणाखण्ड के अन्तर्गत 'बन्धन' अनुयोगद्वार में बन्धनीय (वर्गणा) के प्रसंग में उन वर्गणाओं की प्ररूपणा की गई है। दोनों ग्रन्थों में उन २३ पुद्गलवर्गणाओं के नामों का निर्देश समान रूप में ही किया गया है। विशेषता यह रही है ष० ख० में जहाँ उनका उल्लेख क्रम से पृथक्-पृथक् सूत्र के द्वारा किया गया है वहां जीवकाण्ड में उनका उल्लेख दो गाथाओं (५६३-६४) में ही संक्षेप से कर दिया गया है। उदाहरणस्वरूप आहार, तेजस, भाषा, मन और कार्मण ये पांच वर्गणाएँ अग्रहणद्रव्यवर्गणाओं से अन्तरित हैं । इनका उल्लेख १० ख० में जहाँ पृथक्-पृथक् ६ सूत्रों (८०-८८) में हुआ है वहाँ जी० का० में 'अगेज्जगेहि अंतरिया । आहार-तेज-भासा-मणकम्मइया' (५६३) इतने मात्र में कर दिया गया है। वहाँ पृथक्-पृथक् 'पाहार-द्रव्यवर्गणा के आगे अग्रहणवर्गणा, उसके आगे तैजसवर्गणा, फिर अग्रहणवर्गणा' इत्यादि-क्रम से निर्देश नहीं किया गया । यह जी० का० में संक्षेपीकरण का उदाहरण है। प० ख० में यद्यपि मूल में जघन्य से उत्कृष्ट भेद के गुणकार और भागहार के प्रमाण का उल्लेख नहीं है, पर धवला में प्रत्येक वर्गणा के प्रसंग में उसे पृथक्-पृथक् स्पष्ट कर दिया गया है। उदाहरणस्वरूप जघन्य आहार द्रव्यवर्गणा से उत्कृष्ट कितनी है, इसे स्पष्ट करते हुए धवला में यह कहा गया है __ "जहण्णादो उक्कस्सिया विसेसाहिया। विसेसो पुण प्रभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो होतो वि आहारउक्कस्स दव्ववग्गणाए अणंतिमभागो।" जीवकाण्ड में संक्षेप से ग्राह्य आहारादि वर्गणाओं के प्रतिभाग का और उनके मध्यगत चार अग्राह्य वर्गणाओं के गुणकार का निर्देश इस प्रकार एक साथ कर दिया गया है सिद्धाणंतिमभागो पडिभागो गेज्मगाण जेट्ठ।-गा० ५६६ पू० चत्तारि अगेज्जेसु वि सिद्धाण मणंतिमो भागो॥-गा० ५६७ उत्त० इस प्रकार यह गुणकार व भागहार की प्ररूपणा धवला के उक्त विवरण से प्रभावित है। २७. जीवकाण्ड में आगे इसी प्रसंग में फलाधिकार की प्ररूपणा करते हुए छह द्रव्यों के उपकार को दिखलाया गया है। उस प्रसंग में आहारादि पांच ग्राह्य वर्गणाओं के कार्य को प्रकट किया गया है। प्र० ख० में उसका स्पष्टीकरण यथाप्रसंग धवलाकार के द्वारा किया गया है। उदाहरण के रूप में दोनों ग्रन्थों में निर्दिष्ट आहार वर्गणा के कार्य को देखिये'ओरालिय-वेउन्विय-आहारसरीरपाओग्गपोगलखंधाणं आहारदव्ववग्गाणा त्ति सण्णा।" -पु० १४, पृ० ५६ आहारवग्गणावो तिणि सरीराणि होंति उस्सासो। हिस्सासो विय xx॥ -जी० का० गाथा ६०६ जी० का० में इसी प्रसंग में स्निग्धता और रूक्षता के आश्रय से परस्पर परमाणुओं में १. सूत्र ५,६,७६-६७ (पु० १४) २. पु० १४, पृ० ५६; इसी प्रकार आगे अग्रहणवर्गणा और तैजस वर्गणा आदि के विषय में पृथक्-पृथक् गुणकार व भागहार का निर्देश किया गया है। इसके लिए सूत्र १०-८१ आदि की धवला टीका द्रष्टव्य है। षट्खण्डागम को अन्य प्रन्यों से तुलना / ३१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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