________________
होने वाला बन्ध किस प्रकार से होता है, इसे स्पष्ट किया गया है (६०८-१८) ।
० ख० में परमाणुओं में होने वाले इस बन्ध का विचार पूर्वोक्त बन्धनअनुयोगद्वार के अन्तर्गत सादिविस्रसाबन्ध के प्रसंग में किया गया है (सूत्र ३२-३६) ।
जीवकाण्ड में बन्ध की वह प्ररूपणा ष० ख० में की गई परमाणुविषयक बन्ध की प्ररूपणा के ही समान है। यही नहीं, जीवकाण्ड में ष० ख० के प्रसंगप्राप्त दो गाथासूत्रों को ग्रन्थ का अंग भी बना लिया गया है । वे
'गाथासूत्र हैं---
गाथांश
० ख० ( पु० १४ )
जी०का० गाथा
द्धिणिद्धा ण बज्झंति
६११
द्धिस्स णिद्वेण दुराहिएण
सूत्र ३४ ३६
६१४
"3
प्रथम गाथासूत्र के अनुसार स्निग्ध-स्निग्ध परमाणुओं में और रूक्ष रूक्ष परमाणुओं में बन्ध के अभाव को प्रकट करते हुए विजातीय (स्निग्ध- रूक्ष) परमाणुत्रों में बन्ध का सद्भाव प्रकट किया गया है। इस प्रसंग में गाथा में प्रयुक्त 'रूपारूपी' का अर्थ प्रकट करते हुए धवला में कहा गया है कि जो स्निग्ध और रूक्ष पुद्गल गुणाविभागप्रतिच्छेदों से समान हैं उनका नाम रूपी है तथा जो पुद्गल गुणाविभागप्रतिच्छेदों से समान नहीं हैं उनका नाम अरूपी है । इन दोनों ही अवस्थाओं में उनमें बन्ध सम्भव है । '
इसी अभिप्राय को जीवकाण्ड में आगे गाथा ३१२ व ६१३ के द्वारा प्रकट किया गया है ।
परमाणुविषयक बन्ध की यह प्ररूपणा तत्त्वार्थ सूत्र (५, ३२-३६) में भी उपलब्ध होती है । पर ष० ख० से उसमें कुछ अभिप्रायभेद रहा है, यह ष० ख० की टीका धवला और तत्त्वार्थ की व्याख्या सर्वार्थसिद्धि और विशेषकर तत्त्वार्थवार्तिक से स्पष्ट है ।
पूर्वोक्त दो गाथासूत्रों में दूसरा 'णिद्धस्स णिद्वेण दुराहिएण' आदि गाथासूत्र 'उक्तं च' कहकर सर्वार्थसिद्धि (५- ३५) और तत्त्वार्थवार्तिक ( ५, ३५, १ ) में उद्धृत भी किया गया है, पर उसके चतुर्थ चरण में प्रयुक्त 'विसमे समे' पदों के अभिप्राय में परस्पर मतभेद रहा है ।
२८. जीवकाण्ड में आगे इसी सम्यक्त्वमार्गणा के प्रसंग में पाँच अस्तिकायों और नौ पदार्थों का निर्देश करते हुए प्रसंगप्राप्त पुण्य-पाप के आश्रय से प्रथमतः पापी मिथ्यादृष्टियों व सासादनसम्यग्दृष्टियों की संख्या प्रकट की गयी है और तत्पश्चात् अन्य मिश्र आदि गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या का उल्लेख किया गया है ( ६१६-२८ ) । आगे क्षपकों में बोधितबुद्ध आदि की संख्या दिखलाते हुए चारों गतियों में भागहार का क्रम प्रकट किया गया है तथा अन्त में यह सूचना कर दी गई है कि अपने-अपने अवहार से पल्य के भाजित करने पर अपनी अपनी राशि का प्रमाण प्राप्त होता है ( ६२६-४१) ।
ष० ख० में जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वारों में दूसरा द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार है । उसमें प्रथमतः ओघ को अपेक्षा चौदह गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या की और तत्पश्चात् आदेश की अपेक्षा क्रम से गति- इन्द्रियादि चौदह मार्गणाओं में यथासम्भव उन-उन गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या की प्ररूपणा हुई है। इसके लिए पु० ३ द्रष्टव्य है ।
इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम के दूसरे क्षुद्रकबन्ध खण्ड के अन्तर्गत पाँचवें द्रव्यप्रमाणा
१. धवला पु० १४, पृ० ३१-३२
३१६ / षट्खण्डागम-परिशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org