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________________ दर्शनविषयक बोध सामायिकभावश्रुत ग्रन्थ कहलाता है । इनकी शब्दप्रबन्धरूप और अक्षरकाव्यों के द्वारा प्रतिपाद्य विषय से सम्बद्ध जो ग्रन्थरचना की जाती है उसका नाम श्रुतग्रन्थकृति है। नोश्रुतग्रन्थकृति अभ्यन्तर और बाह्य के भेद से दो प्रकार की है। इनमें अभ्यन्तर नोश्रुतग्रन्थकृति मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से चौदह प्रकार की तथा बाह्य नोश्रुतग्रन्थकृति क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन, आसन और भाण्ड के भेद से दस प्रकार की है। यहां यह शंका उत्पन्न हुई है कि क्षेत्र-वास्तु आदि को भावग्रन्थ कसे कहा जा सकता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि कारण में कार्य के उपचार से उन्हें भावग्रन्थ कहा जाता है। इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि व्यवहारनय की अपेक्षा क्षेत्र आदि ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे अभ्यन्तर ग्रन्थ के कारण हैं। इसके परिहार का नाम निर्मन्यता है। निश्चयनय की अपेक्षा मिथ्यात्व आदि ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे कर्मबन्ध के कारण हैं। इनके परित्याग का नाम निर्ग्रन्थता है। नैगमनय की अपेक्षा रत्नत्रय में उपयोगी बाह्य और अभ्यन्तर परिग्रह के परित्याग को निर्ग्रन्थता का लक्षण समझना चाहिए (पु० ६, पृ० ३२१-२४)। करणकृति करणकृति दो प्रकार की है-मूलकरणकृति और उत्तरकरणकृति। इनमें मलकरणकृति औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण शरीरमूलकरणकृति के भेद से पांच प्रकार की है। इनमें जो औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरमूलकरण कृति है वह संघातन, परिशातन और संघातन-परिशातन के भेद से तीन प्रकार की है। किन्तु तैजस और कार्मण शरीरमलकरणकृति परिशातनकृति और संघातन-परिशातनकृति के भेद से दो प्रकार की है (सूत्र ६८-७०)। धवलाकार ने कहा है कि करणों में जो पांच शरीररूप प्रथम करण है वह मूलकरण है, क्योंकि शेष करणों की प्रवृत्ति इसी के आश्रय से होती है । आगे दूसरी एक शंका यह भी की गयी है कि कर्ता जो जीव है उससे शरीर अभिन्न है, अतः वह भी कर्ता है, इस स्थिति में वह करण कैसे हो सकता है। उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि जीव से शरीर कथंचित् भेद को प्राप्त है । यदि उसे जीव से कथंचित् भिन्न न माना जाय तो चेतनता और नित्यत्व आदि जो जीव के गण हैं वे शरीर में भी होना चाहिए । पर वैसा नहीं देखा जाता है। इसलिए शरीर के करण होने में कुछ विरोध नहीं है । ___ मूल करणों का कार्य जो संघातन आदि है इसी का नाम मूलकरणकृति है, क्योंकि 'क्रियते कृतिः' इस निरुक्ति के अनुसार 'कृति' का अर्थ कार्य होता है । _ विवक्षित परमाणुओं का निर्जरा के बिना जो संचय होता है, उसे संघातनकृति कहते हैं। शरीरगत उन्हीं पुद्गलस्कन्धों की संचय के बिना जो निर्जरा होती है उसे परिशासनकृति कहते हैं । विवक्षित शरीरगत पुद्गलस्कन्धों के जो आगमन और निर्जरा दोनों एक साथ होते हैं उसे संघातन-परिशातनकृति कहा जाता है। तियंच और मनुष्यों के उत्पन्न होने के प्रथम संयम में औदारिक शरीर की संघातनकृति ही होती है, क्योंकि उस समय उसके स्कन्धों की निर्जरा सम्भव नहीं है । तत्पश्चात् द्वितीयादि समयों में उसकी संघातन-परिशातनकृति होती है, क्योंकि द्वितीयादि समयों में अभव्यों से अनन्त षट्खण्डागम पर टीकाएँ । ४७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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