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गणना को संख्यात या संख्येय कहा जाता है। तीन को आदि करके उत्कृष्ट अनन्त तक की गणना का नाम कृति है। आगे 'वुत्तं च' कहकर इसकी पुष्टि इस गाथा द्वारा की है
एयादीया गणना दो आदीया घि जाण संखे ति।
तीयादीणं णियमा कदि ति सण्णा दु बोद्धव्वा ॥ तत्पश्चात् 'यहाँ कृति, नोकृति और अवक्तव्यकृति के उदाहरणों के लिए यह प्ररूपणा की जाती है। ऐसी सूचना कर उन तीन की प्ररूपणा में ओघानुगम, प्रथमानुगम, चरमानुगम और संचयानुगम इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है। तदनुसार उनमें पहले तीन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा उनके अवान्तर अनुयोगद्वारों के साथ संक्षेप में कर दी गयी है (पु० १, पृ० २७७-८०)।
'संचयानुगम' अनुयोगद्वार की प्ररूपणा में सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों का उल्लेख कर तदनुसार ही उनके आश्रय से क्रम से उपर्युक्त कृति, नोकृति और अवक्तव्यकृति इन तीनों कृतियों की धवला में विस्तार से प्ररूपणा है। जैसे
सत्प्ररूपणा की अपेक्षा नरकगति में नारकी कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित हैं। आगे अन्य समस्त नारकियों और एकेन्द्रियादि तियंचों तथा यथासम्भव कुछ अन्य मार्गणाओं में भी इसी प्रकार से सत्प्ररूपणा करने की सूचना है । आहारद्विक व वक्रियिकमिश्र आदि कुछ विशिष्ट मार्गणाओं में कृतिसंचितादि कदाचित् होते हैं और कदाचित् वे नहीं भी होते हैं। जिन मार्गणाओं में उनकी प्ररूपणा नहीं की गयी है उनके विषय में धवलाकार ने यह कह दिया है कि शेष मार्गणाओं में कृति संचित नहीं हैं, क्योंकि उनमें नोकृति और अवक्तव्य कृतियों से प्रवेश सम्भव नहीं है। इस प्रकार से सत्प्ररूपणा समाप्त की गयी है। __ आगे धवला में यथाक्रम से अन्य द्रव्यप्रमाणानुगम आदि सात अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा है।
प्रन्थकृति
ग्रन्थकृति के स्वरूप-निर्देश के साथ सूत्र (४,१,६७) में कहा गया है कि लोक, वेद और समय विषयक जो शब्दप्रबन्धरूप तथा अक्षरकाव्यादिकों की जो ग्रन्थरचना-अक्षरकाव्यों द्वारा प्रतिपाद्य अर्थ का विषय करने वाली ग्रन्थरचना-की जाती है उस सबका नाम ग्रन्थकृति है।
यह पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि धवलाकार प्रसंगप्राप्त विषय का व्याख्यान निक्षेपार्थ पूर्वक करते हैं । तदनुसार उन्होंने यहाँ ग्रन्थकृति नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ग्रन्थकृति के भेद से चार प्रकार की कही है। इस प्रसंग में उन्होंने नोआगमभावग्रन्थकृति को नोआगमभावश्रुतग्रन्थकृति और नोआगमनोभावश्रुतकृति के भेद से दो प्रकार का निर्दिष्ट किया है। यहाँ उन्होंने श्रुत के ये तीन भेद निर्दिष्ट किये हैं-लौकिक, वैदिक और सामायिक । इनमें प्रत्येक द्रव्य और भाव के भेद से दो प्रकार का बतलाया है। तदनुसार हाथी, घोड़ा, तंत्र, कौटिल्य और वात्स्यायन आदि विषयक बोध को लौकिकभावश्रुत कहा जाता है। द्वादशांग विषयक बोध का नाम वैदिकभावश्रुतग्रन्थ है। नैयायिक, वैशेषिक, लोकायत, सांख्य, मीसांसक, बौद्ध आदि
१. यह गाथा यद्यपि त्रिलोकसार में गाथांक १६ में उपलब्ध है, पर वह निश्चित ही धवला से
पश्चात्कालवर्ती है। सम्भवतः वह धवला से ही वहाँ ग्रन्थ का अंग बनायी गयी है।
४७४ / पदसण्डागम-परिशीलन
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